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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०१७ उ०२ सू०१ धर्मादिस्थितजीवादिनिरूपणम् ३८१ इत्यस्यायमर्थः संयतः धर्ममेव आश्रित्य स्वीकृत्य विहरति-तिष्ठति धर्मस्या श्रयणमेव धर्मे स्थितत्वं न तु 'धर्मे स्थितः' इत्यस्य उपवेशनमित्यर्थों भवति तस्य असंभवात अननुभवाच न हि कस्यचिदपि भवति एवमनुभवो यदहं धर्मे-धर्मोपरि तिष्ठामीति । 'असंनयः जाव पावकम्मे अधम्मे ठिए' असंयत यावत् पापकर्मा अधर्मे स्थितः अत्र यावत्पदेन 'अविरय अपडिहयपच्चकवाय' इत्यन्तस्य संग्रहो भवतीति तथा च असंयताविरतामतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा इत्यर्थः। यत् अधम्मं चेव उपसंपज्जित्ता णं विहरई' अधर्ममेव उपसंपद्य खलु विहरति उपसंपद्य स्वीकृत्य इत्यर्थः विहरति तिष्ठति, 'संजयासंजए धमाधम्मे ठिए' संयता संयतो धर्माधर्मे स्थितः 'धम्माधम्मं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ' धर्माधर्ममुपसंपद्य खलु विहरति । ‘से तेणटेणं गोयमा ! जाव ठिए' तत्तेनार्थेन गौतम ! यावत् धर्म में स्थित होना है। 'धमें स्थितः' इसको अर्थ धर्म में बैठना ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा अर्थ असंभव है। तथा स्वानुभवगम्य नहीं है। किसी को भी ऐसा अनुभव नहीं होता है कि मैं धर्म के ऊपर बैठा हूं। 'असंजय० जाव पावकम्मे अधम्मे ठिए' तथा-जो जीव असंयत है, यावत-अविरत है. प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा नहीं है वह अधर्म में स्थित है। इसका तात्पर्य 'अधम्मं चेव उवसंपज्जित्ता णं विहरई' ऐसा है- अर्थात् ऐसा जीव अधर्मरूप अविरति को ही स्वीकार किये रहता। 'संजयासंजए धम्माधम्मे ठिए' जो जीव सपतासयत है वह धर्मा. धर्म में स्थित है सो इसका सारांश 'धम्माधम्म उवासंपन्जिताणं विह. रह' ऐसा है-अर्थात् ऐसा जीव धर्माधर्मरूप देशविरतिवाला होता है। 'से तेणटेणं गोयमा ! जाव ठिए' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जो मनुष्य संयतादि विशेषणों वाला है वह धर्म में અર્થ ધર્મમાં બેસવું એ થતું નથી કેમકે તેવો અર્થ સ્વાનુભવ ગમ્ય નથી. કોઈને પણ એ અનુભવ થતું નથી કે હું ધર્મ ઉપર બેઠો છું. કે धर्म ५२ सूत। छु 'असंजय जाव पावकम्मे अधम्मे ठिए' तथा ७१ मस.. યત છે. યાવત્ અવિરત છે. પ્રતિહત પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મમાં નથી તે અર્થ. भाभा स्थित छे. तेनु तात्५५° से छे , 'अधम्मं चेव उवसंपज्जित्ता णं विहरई' अति सवा सय ३५ अवितिन पि२रै छे. 'संजयासंजये धम्माधम्मे ठिए' २ १ सयतासयत छ. ते धिमा स्थित छ. तना सारांश ‘धम्माधम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरई' सवा छे. अर्थात सवा ७१ धर्माधम ३५ शिविरति पाणी छे. 'से तेणटेणं गोयमा! जाव ठिए' त अरथी है गौतम! में से धुं छ २ મનુષ્ય સંયત વિગેરે વિશેષ વાળે છે. તે ધર્મમાં સ્થિત છે. અને અસંયત શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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