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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१६ उ० १० सू० १ अवधिज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ३१९ द्विविधोऽवधिः प्रज्ञप्तः 'ओहीपय निरवसेसं भाणिय' अवधिपदं निरवशेष भणितव्यम् आ अवधिस्वरूपनिरूपणमस्तावे प्रज्ञापनायास्त्रयस्त्रिंशत्तमम् अवधिपदम् अध्ये तव्यम् तच्चैवम्-'दुविहा ओही पन्नत्ता' द्विविधोऽवधिः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा 'भवपञ्चइया खोवसमिया य' भवप्रत्ययिकः क्षयोपशमिकश्च 'दोण्हं भवपच्चइया'द्वयोर्भव प्रत्ययिकः 'तं जहां तद्यथा 'देवाण य नेरइयाण य' देवानां च नैरयिकाणां च 'दोहं खोवसमिया' द्वयोः क्षायोपशमिकः 'तं जहा' तद्यथा 'मणुस्साण य पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य' मनुष्याणां च पञ्चन्द्रियतिर्यग् कहा गया है। 'ओहीपयं निरवसेसं भाणियन्वं' ऐसा कहा गया है-सो उसका तात्पर्य ऐसा है कि इस अवधिज्ञान के कारण को स्पष्ट जानने के लिये यहां प्रज्ञापना सूत्र का ३३ वां अवधिपद पढ लेना चाहिये। जो इस प्रकार से हैं-'दुविहा ओहीपन्नत्ता' अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जो इस प्रकार से है-'भवपच्चया खोवसमिया' भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक "दोण्हं भवपच्चया" भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान दो के होता है-जैसे 'देवाण य नेरच्याण य' देवों के और नैरयिकों के अर्थात् देवों के और नैरयिकों के जो अवधिज्ञान होता है वह भवप्रत्ययिक होता है । उस अवधिज्ञान की उत्पत्ति में वहां जन्म लेना ही कारण है। इसलिये इसे भव प्रत्यायिक कहो गया है । तथा 'दोण्हं खोवसमिया' क्षायोपशमिक अवधिज्ञान दो जीवों को होता है। 'तं जहा मणुस्सा ण य पंचिंदियतिरिक्खजोणिशान में प्रा२४ ४धु छ. "ओहिपय निरवसेसं भणियठवं" मीडिया स५५ અવધિ પદ કહેવું એમ કહ્યું છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે, આ અવધિજ્ઞાનના કારણને સ્પષ્ટ રીતે જાણવા માટે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં તેત્રિસમું અવધિ પર જોઈ देता प्रमाणे छे "दुविहा ओही पन्नता" भवधि ज्ञान में प्रानु ४थु छ.-तंजहा ते मा प्रमाणे छ. "भवपच्चइया खओवसमिया" सव प्रत्यक्ष, मत क्षायोपशमी "दोण्णं भवपच्चया' साप्रत्य, अधि ज्ञान बने. थाय छे. २म "देवाण य नेरइयाण य" वा अन नैरान અર્થાત દેને અને નરકેને જે અવધિજ્ઞાન થાય છે. તે ભવપ્રત્યઈક અવધિ જ્ઞાન થાય છે. તે અવધિ જ્ઞાનની ઉપ્તત્તિમાં ત્યાં જન્મ લે એજ १२ छे. तथा तेने सत्य युं छे. तेभ "दोण्हं खओवसमिया" क्षाया५सभी५ भवधिज्ञान मे वोन थाय छ.-तंजहा-मणुस्साण य पंचेदियतिरिक्खजोणियाण य"-म है (१) मनुष्याने अने. (२) तिय"य શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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