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भगवतोसूत्रे हे गौतम ! 'संवुडे वि सुविणं पासइ' संवृतोऽपि स्वप्नं पश्यति 'असंवुडो वि मुविणं पासइ'असंवृतोऽपि स्वप्नं पश्यति 'संवुडासंवुडे वि मुविणं पासई' संवृतासंवृतोऽपि स्वप्नं पश्यति देशविरतः श्रापक इत्यर्थः सर्वेऽपि स्वप्नं पश्यन्तीत्यर्थः । ननु यदि संकृतोऽपि स्वप्नं पश्यति, असंहतोऽपि स्वप्नं पशति, संवृतासंवृतोऽपि स्वप्न पश्यति, तदा संतासंवृतादीनां को भेद इत्याशंक्य एतेषां वैलक्षण्यप्रतिपादनाय आह-'संवुडे सुविणं' इत्यादि 'संवुडे सुविण पासइ अहातचं पासई' संवृतः स्वप्नं पश्यति यथातथ्यं पश्यति तथ्य-सत्यमनतिक्रम्य वर्तमानं यथातथ्यम् सत्यमेव निवृत्ति करनेवाला है वह 'सुविणं पासइ' स्वप्न देखता है ? 'असंवुडे सुविणं पासई' या जो असंवृत है वह स्वप्न देखता है ? या 'संधुड़ासंबुडे सुविणं पासइ' जो संवृतासंवृत है वह स्वप्न देखता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम !' 'संधुडे वि सुविणं पासइ' जो संत होता है वह भी स्वप्नदेखता है । 'असंवुडे वि सुविणं पासह' जो असंवृत होता है वह भी स्वप्न देखता है । तथा 'संवुडासंबुडे वि सुविणं पासई' जो संवृत्तासंवृतदेशविरतश्रावक है वह भी स्वप्न देखता है। अर्थात् ये सब भी स्वप्न देखते है । इस प्रकार के कथन से यहां पर ऐसी आशंका हो सकती है कि जब संवृत भी स्वप्न देखता है, असंवृत्त भी स्वप्न देखता है, और संवृतासंवृत भी स्वप्न देखता है तो फिर संवृत्तासंवृतादिकों में भेद क्यो रहा ? इस शंका की निवृत्ति के लिये इन में विलक्षणता-भेद-प्रतिपादन के लिये ऐसा कहा गया है-कि-'संवुडे सुविणं पासह, अहातच्च पासह' संवृत जो स्वप्न देखता है वह उस मथ 'असंवुडे णं सुविण पासइ २ मा छे ते २१ मे छ अथवा तो 'संवुडासंवुडे सुविण पासइ' २ सतासनत छे ते २१ मेले ? तन। उत्तरमा महावीर प्रभु 3 छ ३ . 'गोयमा' गौतम ! संवुडे वि सविण पासइ' २ सताय छे. ते ५ २१न गुमे छे 'असंवुडा वि सुविणं पासइ' 2 मत छ। छे. ते ५५ वन से छे तथा 'संवुडा संवुडे वि सुविण पासइ' सतावत-हेशपिति श्राप छे. ते ५५ स्वप्न જુએ છે. અર્થાત્ સંવત-અસંવત અને સંગ્રતાસંગ્રત બધા સ્વપ્ન જુએ છે.
આ કથનથી અહિયાં એવી શંકા થાય છે જે સંવત પણ સ્વપ્ન દેખે છે. અસંવત પણ સ્વપ્ન દેખે છે. અને સંગ્રતા-સંવત પણ સ્વપ્ન જુએ છે. તે પછી આ ત્રણેમાં ભેદ શું રહ્યો? આ શંકાના નિવારણ માટે તેમાં ભેદ मामता प्रभुमा प्रमाको ४ छ. , 'संवुडे सुविणं पासइ अहतच्च पासइ'
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨