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________________ १३२ भगवतीसूत्रे भगवानाइ-'नो इणडे' इत्यादि 'नो इगटे समडे' नायमर्थः समर्थः, नहि कोऽपि देवः, बाह्यपुद्गलान , अनादाय आगमनादिकं कर्तुं शक्नोतीति । 'देवे णं भंते ! देवः खलु भदन्त ! 'महडिए जाव महासोक्खे' महर्द्धिको यावद् महासौ स्या, 'बाहिरए पोग्गले परियाईत्ता पभू आगमित्तए' बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभु : आगन्तुम् बाह्यपुद्गलान् आदाय आगमने समर्थः किमिति प्रश्नः । भगवानाह'हता पभू' हन्त प्रभूः समर्थः शक्नोत्येव बाह्य पुद्गलानादाय आगमनादिव्यवहारं कर्तुमित्यर्थः, इति प्रथमप्रश्नः सम्प्रति अष्टप्रश्नान्तर्गतशेषप्रश्नान् भगवन्तं पृच्छति 'देवे णं भंते !' देवः खलु भदन्त ! 'महडिए जाव महासोक्खे' महर्दिको यावद महासौख्यः ‘एवं एएणं अभिलावेगं गमित्तए' एवम् , अनेन, अभिलापेन ऐसा यह प्रश्न किया है । इसके उत्तर में प्रभु कहते है--'नो इणढे समढे' हे शक्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् कोई भी देव बाय पुद्गलों को ग्रहण किये विना आगमनादि क्रियाको नहीं कर सकता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'देवेणं भंते ! महडिए जाव महासोक्खे' हे भदन्त ! महद्धिक यावत् महासुख युक्त देव बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमित्तए' बाहर के पुदगलों को ग्रहण करके क्या आगमनादिरूप क्रिया कर सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, पभू' हां शक ! ऐसा वह कर सकता है । अर्थात् बाय पुद्गलों को प्रहण करके देव आगमनादिव्यवहार करने के लिये समर्थ हो सकता है यह प्रथम प्रश्न का उत्तर है। अब अष्ट प्रश्नान्तर्गत शेष प्रश्नों को यह भगवान से पूछता है-'देवे णं भंते ! महड्किए जाव महासोक्खे' हे भदन्त ! जो महर्द्धिक यावत् महासुखसंपन्न देव है वह 'एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए' इसी अभिलापक अनुसार क्या “णो इणद्वे समढे" : As At 44 4३१५२ नथी मात् । ५४ हे બાહા પુદ્ગલેને ગ્રહણ કર્યા સિવાય આગમન વિગેરે કિયા કરી શકતા નથી वे गौतम स्वामी प्रसुनेको प्रमाणे पूछे छे , “ देवे णं भंते ! महढिए जांव महासोक्खे" सन् ! महाद्विवाणी यावत् मासुमवाणा हे "वाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमित्तए" मारना पुराने घड ४शन मारामन या 30 श छ ? तन। उत्तरमा प्रभु छ है “हता पभू" હા, શંક એવું તે કરી શકે છે. અર્થાત્ બાહ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને દેવ આગમન વિગેરે વ્યવહાર કરવામાં સમર્થ છે. આ પહેલા પ્રશ્નને ઉત્તર છે वे मा8 प्रशान्त२ गत माहीन प्रश्री ते सवाल पूछे छे. “देवेणं भंते ! महढिए जाव महासोक्खे" है मसलन् ! २ मधि' यावत् महासुभदाणे हे छे. “एवं एएणं अभिलावेण गमित्तए" मा समिक्षा प्रमाणे शुनपान શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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