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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०१५ उ०१ सू०२० स० सुनक्षत्रानगारगतिनिरूपणम् ८११ क्षमयति-क्षमापना करोति, खामित्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उइदं चंदिमम्ररिय जाव भाणपाणयारणकप्पे वीईवइत्ता अच्चुए कप्पे देवताए उपबन्ने क्षमयित्वा श्रमणादीन् आलोचितप्रतिक्रान्त:-कृतालोचनप्रतिक्रमण, समाधिपात:-समाहितः सन् , कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वम्ऊर्ध्वलोके, चन्द्रमः सूर्य यावत्-पानतपाणवारणकल्पान् व्यतित्रज्य-व्यतिक्रम्य, अच्युते कल्पे देवतया उपपन्नः, 'तत्थ णं अस्थेगइयाणं देवाणं वायीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता' तत्र खलु-अव्युते कल्पे अस्त्येकनां देवानां द्वाविंशति सागरोपमानि स्थितिः प्राप्ता, 'तत्थ णं सुनवखत्तम्स वि देवस बावीसं सागरोवमाई सेसं जहा सव्वाणुभूइस्स जाव अंतं काहिय' तत्र खलु अच्युते कल्पे सुनक्षत्र स्यापि देवस्य-देवत्वेन उत्पन्नस्य द्वाविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञता, शेष और उनसे क्षमा याचना की थी। 'खामित्ता आलोइयपडिक ते समाहि. पत्ते कालमासे कालं किच्चा उडू चंदिम प्रिय जाच आणयपाणयारणकप्पे वीइवत्ता अच्चुए कप्पे देवत्तार उववन्ने' इस प्रकार खमतखमासणा करके उन्होंने आलोचना प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त किया था, एवं फिर काल मास में काल कर अवलोक में चन्द्रमा सूर्य यावत् आनतप्राणत आरण कल्प इन सब को उल्लंघन करके वे अच्युत कल्प में देव की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। 'तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता' वहां कितनेक देवों की २२ सागरोपम तक की स्थिति कही गई है-'तस्थ णं सुनक्खत्तस्स वि देवस्स बावीसं सागः रोवमाई सेसं जहा सव्वाणुभूइस्स जाव अंतं काहि उस अच्युतकल्प में देवरूप से उत्पन्न हुए सुनक्षत्र देव की भी २२ घावीस सागरोपम क्षमापना ४२ ती मने मनी पासे क्षमानी यायन। ४२ ती. “ खामित्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालंकिच्चा उड्डः चंदिमसूरिय जाव आणयाणयारणकप्पे वीइवत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने" मा प्रभाव ખમતખમાસણું કરીને તેમણે આલેચના પ્રતિક્રમણ કરીને સમાધિભાવ પ્રાપ્ત કર્યો હતો. ત્યાર બાદ કાળને અવસર આવતા કાળધર્મ પામીને, ઉદલેકમાં ચન્દ્ર સૂર્યથી લઈને આતપ્રાણુત અને આરણ પર્વતના કપનું ઉલ્લંઘન કરીને તેઓ બારમાં અશ્રુત કપમાં દેવની પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ गया छे. “तस्थ ण' अत्थे गइयाण देवाण बावीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता" aapasin 23 हेवानी स्थिति २२ साग।५भनी ही छ. “ तत्थ ण सुनक्ख तस्स वि देवस्स बाबीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता" ५२युत ४६५i દેવરૂપે ઉત્પન્ન થયેલાં તે સુનક્ષત્ર દેવની સ્થિતિ પણ ૨૨ સાગરોપમની જ છે, શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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