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________________ ७५६ भगवती सूत्रे " दुखं तन् मनोमानसिकं तेन दुःखेनाभिभूतः, मालुकाकक्षकम् अनुप्रविश्य, महता महता शब्देन कुहू कुहूरिति कृत्वा मरुदितोऽसि त्वम्, तत् हे सिंह ! अनगार ! नूनं निश्वयेन खलु तवायमर्थः समर्थः सत्योनु सिंहोऽनगारः स्वीकरोति 'हंता, अस्थि' हन्त - सत्यम् अस्ति यथा भवतोक्तं तथैव वर्तते इति भावः 'तं नो खलु अहं साहा ! गोसाळस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेपणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छहं मासाणं जाव कालं करेस्सं तत् तस्मात्कारणात, हे सिंह ! अनगार ! नो खलु निश्वयेन अहं गोशालस्य मङ्खलिपुत्रस्य तपसा - तपःप्रभवेण, तेजसा - तेजोलेश्यया, अन्वाविष्टः - आक्रान्तः, व्याप्तः सन् अन्ते षण्णां मासानाम् षष्मासा यह दुःख तुम्हारे अभी तक मन में बना हुआ है - बाहर वचन से तुमने इसे अभी तक प्रकाशित नहीं किया है । ( जो मानसिक दुःख होता है उसी का नाम मनोमानसिक दुःख है) सो इस मनोमानसिक दुःख से अभिभूत होकर तुम आतापत्र भूमि से नीचे उतर कर यहां मालुकाकक्ष में आये और जोर २ से सिसक २ खूब रोये । कहो सिंह 1 अनगार ! यह बात सत्य है न ? तब सिंह अनगार ने प्रभु के इस कथन का समर्थन करते हुए प्रभु से कहा । 'हंता, अस्थि' हां भदन्त ! आपका कथन सत्य है, जैसा आप कह रहे हैं, यह ऐसा ही है । 'तं नो खलु अहं सीहा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवे णं तेए णं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छहं मासाणं कालं करेस्सं' तब प्रभु ने सिंह अनगार को धैर्य बँधाते हुए इस प्रकार कहा - हे सिंह ! मैं मंखलिपुत्र गोशाल की तपजन्य तेजोलेश्या के प्रभाव से जो कि उसने शरीर से बाहर कर मेरे ऊपर छोड़ी है, आक्रान्त हुआ छह मास के बाद छन्नस्थावस्था મનમાં દુઃખ ઉત્પન્ન થયું છે. આ મનેામાનસિક દુઃખને તમે હજી સુધી કાઇની પાસે પ્રકટ કર્યુ" નથી. (માનસિક દુઃખને મનેામાનસિક દુ;ખ કહે છે) આ મનેામાનસિક દુ:ખને લીધે તમે આતાપના ભૂમિ પરથી નીચે ઉત રીતે માલુકાકક્ષ વનમાં જઈને હિબકાં ભરી ભરીને માટેથી રડવા લાગ્યા હતા. કહા સિંહુ અણુગાર ! મારી વાત ખરી છે ને ? ' ત્યારે સિ'હું અણુગારે तेमनी वातनुं समर्थन करतां या प्रभा अधु - " इंता, अत्थि ” “ હા भगवन् ! साय ने उडो छ। ते सत्य ४ छे. " तं नो खलु अहं सीहा ! गोतालास मखलिपुत्तस्स तवेण वेपण अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छहं मासाणं जाब कालं करेस्सं " हे सिद्ध ! हुं मध्यविपुत्र गोशालनी तपन्न्य तेलेले. શ્યાના પ્રભાવથી છ માસના સમયમાં છદ્મસ્થ અવસ્થામાં જ કાળધમ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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