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भगवतीसूत्रे प्रकृत्युपशान्तः, प्रकृतिमतनुक्रोधमानमायालोमा, मृदुमार्दवसम्पन्नः, विनीतः, मालुकाकक्षकस्य-मालुका कक्षाभिधवनस्य अदूरसामन्ते-नातिदूरप्रत्यासन्ने, षष्ठ षष्ठेन अनिक्षिप्तेन निरन्तरेण, तपाकर्मणा उर्ध्वबाहुः यावत् विहरति-तिष्ठति, 'तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए बट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्या'-ततः खलु तस्य अनगारम्य ध्यानान्तरिकायाम्-ध्यानमध्ये वर्तमानस्य, अयमेतद्रूपो-वक्ष्यमाणस्वरूपो यावत् आध्यात्मिका-आत्मगतः, चिन्तितः, कल्पिता, मार्थितः, मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-'एवं खलु ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए उज्जले जाव छ उमत्थे चेव कालं करिस्सई' एवं खलु मम भद्र थे-सरल थे यावत्-प्रकृति से उपशान्त -क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चारों कषायें इनकी स्वभावतः पतली हो गई थीं, मृदु. मार्दव गुण से ये संपन्न थे। पडे भारी विनीत थे। मालु काकक्ष नामके वन के पास में ऐसे स्थान पर ये रहते थे, जो न उससे दूर था और न उसके पास ही था। ये निरन्तर छ? छ? की तपस्या करने में निरत रहते थे। और अपने दोनों हाथों को ऊपर किये रहते थे । 'तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुपन्जिया' एक समय की बात है कि जब ये सिंह अनगार ध्याना. तरिका-ध्यान के बीच में विराजमान थे, तब उन्हें यह इस प्रकार का आध्यात्मिक-आत्मगत, चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'एवं खलु ममं धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स भगवो महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए' मेरे धर्माचार्य તેઓ આતાપનાભૂમિમાં સૂર્યની સામે હાથ ઊંચા કરીને આતાપેલા લઈ રહ્યા उता. तो भद्र (A२१) प्रतिपाय ता, ७५शान्त प्रतिपणा ताતેમણે ક્રોધ, માન, માયા અને લેભરૂપે ચારે કષાને પાતળા પાડી નાખ્યા उता, त। मुटुमा गुथी सपन्न भने ५४ विनात ता. “ तए णं तस्स सोहस्पू अपगार झाणंतरिवाए वट्टमाणस अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था " मे समय ४॥रे सि अ॥२ ध्यानान्तरिम-ध्यानस्थ દશામાં-વિરાજમાન હતા, ત્યારે તેમના મનમાં આ પ્રકારને આત્મગત मा विशेषणे वागे। स४८५ उत्पन्न थयो " एवं खलु मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेस्रगस्स समणस्स भगव ओ महावीरस्म सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउभर " भा२। घाया", या ५४४ श्रम समपान मडावी२॥ शश
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧