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________________ ७३४ भगवतीसूत्रे खलु निश्चयेन, गोशालो मङ्खलिपुत्रो जिनो जिनमलापी, यावत् नो अर्हन् अर्हत्य लापी नो केवली केवलिप्रलापी, नो सर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी, नो जिनो जिनशब्द प्रकाशन विहृतः, 'एस णं चेव मंखलिपुत्ते गोसाले मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए' एष एव खलु-निश्चयेन, गोशालो मङ्खलिपुत्रः श्रमणघातको यावत्-श्रमणमारकः, श्रमणप्रत्यनीका, आचार्योपाध्यायानाम् अयशस्करः, अवर्णकरः, अकीर्तिकरः इत्यादिपूक्तिविशेषणविशिष्टश्च छद्मस्थ एव-छद्मस्थावस्थायामेव, कालगतः-मृतः 'समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलाची जाच विहरइ' श्रमणो भगवान् महावीरो जिनोनिन प्रलापी यावत्-अहंन् अर्हत्सलापी, केवली करते हुए मन्द मन्द शब्दों द्वारा धीरे २ उद्घोषण करते २ फिर उन्होंने इस प्रकार कहा-'णो खलु देवाणुपिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाब विहरिए' हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशाल जिन नहीं था, वह तो केवल जिन प्रलापी था-जिन नहीं होकर भी अपने को जिन मानने वाला था। यावत् वह अर्हन्त नहीं था। वह तो केवल अर्हस्पलापी था-अहन्त नहीं होने पर भी अपने को अन्ति माननेवाला था। वह केवली नहीं था किन्तु केवलि प्रलापी था-केवली नहीं होने पर भी अपने का केली माननेवाला था। वह सर्वज्ञ नहीं था। किन्तु सर्वज्ञ प्रलापी था-सर्वज्ञ नहीं होने पर भी अपने का सर्वज्ञ मानने वाला था। वह जिन नहीं था और न जिन शब्द का वह प्रकाशक ही था 'एप्त णं चेव मखलिपुत्ते गोप्साले समणघायए जाव चउ. स्थेचेव कालगए' श्रमणघातक यावत्-श्रमणमारक, श्रमणप्रत्यनीक इत्यादि पूर्वोक्त विशेषणों वाला यह मंखलिपुत्र गोशाल छद्मस्थावस्था में ही मरा है। 'समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरई' श्रमण भगवान महावीर ही जिन हैं। जिन प्रलापी हैं, यावत्-अहंत हैं, जिणप्पलाबी, जाव विहरिए " " है वानुप्रियो ! म मलिपुत्र शla - ન હતો, પરંતુ માત્ર જિન પલાપી જ હતા-જિન ન હોવા છતાં પણ પિતાને જિન કહેતે ફરતે હતો. તે અર્વત પણ ન હો, છતાં પણ પિતાને અમૃત રૂપ મનાવતા હતા તે કેવલી ન હતું, છતાં પણ પિતાને સર્વજ્ઞ રૂપ ગણાવતું હતું તે ખરા રૂપે જિન ન હતું છતાં પણ પિતે જિન શબ્દને સાર્થક अरी २ह्याने प्रया२ ४२ते। वियरतो तो. "एस ण चेव मंखलिपुत्ते गोसाले समणघायए जाव छ उमत्थे चेव कालगए" अभय धात, श्रममा२४, श्रमપ્રત્યેનીક આદિ પૂર્વોકત વિશેષણોવાળે તે મખલિપુત્ર ગોશાલ છદ્મસ્થાવસ્થામાં भ२५ पाभ्या. “ समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी जाव विहर" શ્રમણભગવાન મહાવીર જ જિન છે, તે જ જિન કહેવાને ગ્ય છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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