SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 681
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० १५ गोशालकवृत्तान्तनिरूपणम् ६६७ त्वं खलु आत्मनैव स्वकेन तेजसा-तेजोलेश्यया अन्याविष्ट:-अभिव्याप्तः सन् अन्तः मध्ये सप्तरात्रस्य, पित्तज्वरपरिगतशरीरो यावत्-दाहव्युत्क्रान्त्या छद्मस्थ एव कालं करिष्यसि, 'तए णं सावस्थीए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्खइ जाव एवं एरुवेइ'-ततः खलु श्रावस्त्यां नगर्या शृङ्गाटक यावत्-त्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु बहुजनोऽन्योन्यस्यपरस्परम् , एवं-वक्ष्यमाणपकारेण आख्याति यावत् भाषते, प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयति-'एवं खलु देवाणुपिया ! सावत्थीए नयरीए बहिया कोट्टए चेइए दुवे जिणा संलवंति' भो देवानपियाः ! श्रावस्त्या नगर्याः बहिर्भागे कोष्ठके चैत्ये परिगयसरीरे जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्ससि' परन्तु हे गोशाल ! तुम अपनी ही तेजोलेश्या से अभिव्याप्त होकर सातरात्रि के बीच में पित्तज्वर से परिगत शरीर होकर के यावत् दाह की व्युत्क्रान्ति द्वारा छमस्थावस्था में ही मरोगे । 'तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जाय पहेलु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परुवेइ तब इसके बाद श्रावस्ती नगरी के शृङ्गाटक, यावत् त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ एवं पथ इन सब में एकत्रित हुए लोगों ने परस्पर में इस प्रकार से बात. चीत करना प्रारंभ किया-यहां यावत् शब्द से ऐसा भाषण करना, ऐसा प्रज्ञापना करना ऐसी प्ररूपणा करना प्रारंभ किया-'एवं खलु देवाणुप्पिया! सावत्थीए नयरीए बहिया कोहए चेइए दुवे जिणा संलवंति' हे देवानुप्रियो ! श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्ससि ' ५२न्तु शास! तुतारी पातानी ४ तेन्नवेश्या पडे અભિવ્યાત થવાને કારણે સાતરાત્રિ પૂરી થયા પહેલાં, પિત્તજવર પરિગત શરીરવાળે થઈને દાહની વ્યુત્કાન્તિથી છવાસ્થ અવસ્થામાં જ મરણ પામીશ. "तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाव एवं परूवेइ" त्यार पा६ श्रावस्ती नारीना श्रृगाट४, त्रि, ચતુષ્ક, ચત્વર, મહાપથ અને પથ પર ઘણુ લોકો ભેગા થઈને એક બીજાને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા, આ પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરવા લાગ્યા, આ પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના કરવા લાગ્યા અને આ પ્રમાણે પ્રરૂપણા ४२१। या. “एवं खलु देवाणुप्पिया ! सावत्थीए नयरीए बहिया कोदए चेइए दुवे जिणा संलवंति" वानुप्रियो ! म श्रावस्ती नारीना બહાર કોષ્ઠક ચિત્યમાં બે જિન વચ્ચે આ પ્રકારની વાતચીત ચાલી રહી છે શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy