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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१४ उ०५ सू० १ ० विशेषपरिणामनिरूपणम् २५५ अग्निकायम् उल्लङ्घय गच्छेत् , अथ अस्त्येकः कश्चित् नैरयिको नो व्यतिव्रजेत्अग्निकार्य नोल्लङ्घय गच्छेत् , गौतमः पृच्छति-' से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चाअस्थेगइए वीइवएज्जा, अत्थेगइए नो वीइचएज्जा' हे भदन्त ! तत्-अथ, केना. र्थेन-कथं तावत् एवमुच्यते अस्त्येकः कश्चित् नैरयिकोऽग्निकार्य व्यतिव्रजेत् अस्त्येकः कश्चित् नैरयिकोऽग्निकायं नो व्यतिव्रजेत् इति ? भगवानाह-'गोयमा! नेरझ्या दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! नैरयिका द्विविधाः-द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा-विग्गहगइसमावनगा य, अविग्गहगइसमावनगा य' तद्यथा-विग्रहगतिसमापनकाश्च-कार्मणसूक्ष्मशरीरप्राप्ताः, अविग्रहगतिसमापनकाश्च-उत्पत्ति कोई नारक अग्निकाय के बीच में से होकर निकल जाते हैं-पर सब नारक नहीं निकलते हैं-कोई नारक ही निकलता है, कोई नहीं भी निकलता है। अर्थात् नारकों में कोई नारक ऐसा होता है जो निकल जाता है और कोई नारक ऐसा भी होता है जो नहीं निकल सकता है । अब 'ऐसा क्यों होता है-इसको जानने की इच्छा से गौतम प्रभु से पूछते हैं-'से केणट्टेणं भंते ! एवंषुच्चइ, अत्थेगइए वीइवएज्जा, अस्थेगहए नो वीइवएज्जा' हे भदन्त ! ऐसा आप क्यों कहते हैं कि कोई नारक अग्निकाय के बीचों बीच से होकर निकल सकता है और कोई नारक उसके बीचों बीच से नहीं निकल सकता है ? तब इसके समाधान के निमित्त प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! इसमें कारण यह है कि नैरयिक दो प्रकार के होते हैं-एक से सब नहीं होते हैं 'तं जहा' जैसे-'विग्गहगइसमावनगा य, अविग्गहगइसमावनगा य' एक नारक विग्रहगतिसमा. पन्नक होते हैं और दूसरे नारक अविग्रहगति-समापन्नक होते हैं । विग्रवीइवएजा" 3 गौतम ! ना२४ मयिनी १२-ये थइने नीsit : છે અને કેઈ નારક અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને નીકળી શકતું નથી. गौतम स्वामीना प्रश्न-“से केणट्रेण भंते ! एवं वुच्चइ, अत्थेगइए वीइवएज्जा अत्थेगइए नो वीइवएज्जा ?" भवन् ! ॥ ४२ मा५ यु કહો છો કે કઈ નારક અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને નીકળી શકે છે અને કઈ તેની વચ્ચે થઈને નીકળી શકતું નથી? महावीर प्रभु तेना उत्तर भापता छ -“गोयमा ! नेरझ्या दुविहा पण्णत्ता” गौतम ! नाना में प्रा२ ४ा छे. “तंजहा" ते मारे। नये प्रमाणे छ-“विग्गहगइसमावनगा य, अविग्गहगइसमावनगा य" (૧) વિગ્રહગતિસમાપનક નારકે અને (૨) અવિગ્રહગતિસમાપન્નક નારકે શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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