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भगवतीसूत्रे तरं पि नेरइया उववज्जति ' हे गौतम ! सान्तरं-सव्यवधानमपि नैरयिका उपपद्यन्ते, अथ च निरन्तरमपि अव्यवधानेनापि नैरयिका उपपद्यन्ते ' एवं असुर. कुमारा वि' एवं-तथैव नायिकवदेव असुरकुमारा अपि सान्तरमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते 'एवं जहा गंगेए तहेव दो दंडगा जाव संतरं वि, वेमाणिया चयंति, निरन्तरं वि वेमाणिया चयंति' एवं-तथैव यथा गाङ्गेये नवमशतके द्वात्रिंशत्तमोदेशके गाङ्गेयप्रकरणे द्वौ दण्डको-उपपत्तिदण्डकः, उद्वर्तनादण्डकश्चेत्येवं रूपये प्रतिपादितो, तथैव अत्रापि उक्तौ द्वौ दण्डको प्रतिपादनीयौ, यावत्नागकुमारादयो भवनपतयः पृथिवीकायिकादयः, द्वीन्द्रियादयः, मनुष्यास्तिर्यग्योनिकाः, वानव्यन्तराः, ज्योतिषिकाः, वैमानिकाच सान्तरमपि च्यवन्ति, प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! संतरं पि नेरड्या उवधज्जति, निरंतरंपि नेरइया उववज्जति' हे गौतम ! नैरयिक अन्तरसहित भी उत्पन्न होते हैं
और विना अन्तर के भी उत्पन्न होते हैं। 'एवं असुरकुमारा वि' नैरयिकों के कथनानुसार ही असुरकुमार भी सान्तर भी उत्पन्न होते हैं
और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 'एवं जहा गंगेए तहेय दो दंडगा जाव संतरं वि वेमाणिया चयंति, निरंतरं वि वेमाणिया चयंति' इस प्रकार से जैसे कि-नौवें शतक के ३२ वे उद्देशक में गाङ्गेय प्रकरण में उत्पत्ति दण्डक और उहत्तनादण्डक-दो दण्डक कहे गये हैं उसी प्रकार से वे उक्त दो दण्डक यहां पर भी कहना चाहिये। इस प्रकार नागकुमारादि भवन पति, पृथिवीकायिकादि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, मनुष्य, तिर्यग्योनिक वानव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक ये सब वैमानिकांत जीव सान्तर भी चवते हैं और निरन्तर भी
भावी२ प्रभुना उत्त२-" गोयमा ! संतरंपि नेरइया उववजंति, निरंत रपि नेरक्या उववजंति ?” 3 गौतम ! ना सन्त२ (मतसहित) ५१ उत्पन्न याय छ भने निरत२ ५५ पन्न थाय छे. “एवं असुरकुमारा वि" એજ પ્રમાણે અસુરકુમારે સાતર પણ ઉત્પન્ન થાય છે, નિરન્તર પણ ઉત્પન્ન थाय छे. " एवं जहा गंगेए तहेव दो दंडगा, जाव संतरं वि वेमाणिया चयंति, निरंतरं वि वेमाणिया चयंति" मा रीते गांगेय ५४२ मां-4म शतन ૩૨માં ઉદ્દેશકમાં-ઉત્પત્તિ દંડક અને ઉત્તરનાદંડક, આ બે દંડકનું જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ તે બે દંડકેના વિષયમાં કરવું જોઈએ એજ પ્રમાણે નાગકુમારાદિ ભવનપતિ, પૃથ્વીકાયિક આદિ એકેન્દ્રિય, કન્દ્રિય, મનુષ્ય, તિર્યંચેનિક, વાનભંતર, તિષિક અને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧