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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ ३०४ सु० १ परमाणुपुद्गलनिरूपणम्
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यावत् नत्र परमाणुपुद्गलाः एकतः संहत्य नवप्रदेशिकः स्कन्धो भवति, स खलु नत्रमदेशिकः स्कन्धो भिद्यमानः द्विधापि त्रिधापि चतुर्धाऽपि, पंचधापि, षोढापि, सप्तधापि अष्टधापि, नवधापि, क्रियते भवति, तत्र ' दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुरोगले, एगयओ अपएसिए खंधे भव' नव प्रदेशिकः स्कन्धो द्विधा क्रियमाणः एकतः- एकमागे परमाणुपुद्गलो भवति, एकत: - अपरभागे अष्टपदेशिकः स्त्रो भवति, एवं एकेक संचारे तेहिं जाव' एवं पूर्वोक्तरीत्या एकैकं प्रत्येकम् संवारयद्भिः - अभिलापक्रमेण प्रतिपादयद्भिः यावत् पूर्वोक्त सर्व संग्रायम्', ' अहवा एगयओ चउप्परसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ ' अथवा एकत: - एकमागे चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धो भवति, एकनः - अपरभागे पञ्चहे गौतम! 'जाय नवविहा कज्जंति' नव परमाणु पुग्गल जब एकरूप में होते हैं- ई-तब उनसे नव प्रदेशी स्कन्ध होता है वह नव प्रदेशिक स्कन्ध जय विभक्त होता है तब उसके दो भी, तीन भी, चार भी, पांच भी छहभी. सात भी, आठ भी और नव भी विभाग हो सकते हैं- 'दुहा कज्ज माणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ अट्ठा एसिए खधे भवई' जब यह नौ प्रदेशिक स्कन्ध दो भागों में विभक्त किया जाता है तब एक भाग में पराणुगल होता है और दूसरे भाग में अष्ट प्रदेशिक स्कन्ध होता है 'एवं एक्केक्कं संचारतेहि जाव अहवा एगयओ चउप्परसिए खंधे; एगयओ पंचवएसिए खधे भवइ" इस प्रकार से यहां अभिलाप क्रम से एक एक प्रदेश का संचार 'अथवा - एक भाग में चतुष्पदेशिक स्कन्ध होता है और दूसरे भाग में पंच प्रदेशिक स्कन्ध होता है, इस
महावीर अलुना उत्तर- " गोयमा ! " हे गौतम! " जाव नवचिहा कति " नय परमाणु युद्गगो न्यारे मे४३५ थाय छे, त्यारे नव अदेशि સ્કંધ ઉત્પન્ન થાય છે. તે નવ પ્રદેશિક કધ જ્યારે વિભકત થાય છે, ત્યારે तेना में, भए, थार, पांच छ, सात, या अथवा नव विलागो थर्ध जय छे. " दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोगले, एगयओ अट्ठत्पएसिए खंधें भवइ " न्यारे या अष्टप्रदेशि सुरधना मे लिाग उपास आये छे, त्यारे એક વિભાગમાં એક પરમાણુ પુદ્દગલ હોય છે અને બીજા વિભાગમાં એક अष्टप्रदेशि स्ध होय छे " एवं एक्केकं संचारे तेहिं जाव अहवा-पायओ
tear खंधे, एगयओं पंचपएसिए खंधे भवइ " આ પ્રકારના અભિલાપ ક્રમ અનુસાર એક એક પ્રદેશની વૃદ્ધિ કરીને નીચેના વિકલ્પ પન્તના બધા વિકલ્પાનું કથન થવુ જોઇએ-“ અથવા એક વિભાગમાં ચાર પ્રદેશિક એક સ્કંધ અને બીજા વિભાગમાં એક પાંચ પ્રદેશિક સ્કંધ ડ્રાય છે,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦