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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० २ सू० १ देवविशेषनिरूपणम् ५२७ कियन्तो नीललेश्यावन्तः, कियन्तः कापोतलेश्यावन्तः, कियन्तस्तेजोलेश्यावन्त उपपद्यन्ते ? 'केनइया कण्हपक्खिया उववज्जति' कियन्तः कृष्णपाक्षिकाः पूर्वोक्त स्वरूपा उपपद्यन्ते, 'एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं' एवंरीत्या यथा रत्नप्रभायां तथैव अत्रापि पृच्छा प्रतिपादनीयाः तथैव रत्नप्रभावदेव व्याकरणं-व्याख्यानं कर्तव्यम् , 'नवरं दोहिं वेदेहिं उत्वज्जति' नवरं-पूर्वापेक्षया विशेषस्तु अत्र द्वयोर्वेदयोः स्त्रीवेदपुरुषवेदयोः उपपद्यते तयोरेव तेषु सत्वात्, उववज्जति' यावत् कितने कृष्णलेश्यावाले कितने नीललेश्यावाले, कितने कापोतलेश्यावाले, तथा कितने तेजोलेश्यावाले उत्पन्न होते हैं ? 'केवइया कण्हपक्खिया उववज्जति' तथा कितने पूर्वोक्त स्वरूपवाले कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं ? 'एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा' इस प्रकार से जैसे ३९ प्रश्न नारकों के विषय में रत्नप्रभा पृथिवी में किये गये हैं-वैसे ही प्रश्न यहां असुरकुमारों को लेकर के करना चाहिये 'तहेव वागरणं' इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- हे गौतम ! जैसा इन प्रश्नों का उत्तर रत्नप्रभा पृथिवी के संख्यातयोजन विस्तारवाले एवं असंख्यातयोजन विस्तारवाले नरकावासों में दिया गया है-उसी प्रकार से यहां पर भी इन प्रश्नों का उत्तर समझना चाहिये 'नवरं दोहिं वेदेहिं उववज्जंति' परन्तु उस समाधान की अपेक्षा इस कथन में यदि कोई विशेषता है तो वह ऐसी है कि यहां पर दो वेदों में-स्त्री કેટલા નીલવેશ્યાવાળા, કેટલા કાતિલેશ્યાવાળા તથા કેટલા તેજલેશ્યાવાળા नार। त्यो समयमा उत्पन्न थाय छ ? “केवइया कण्हपक्खिया उववज्जंति" तथा 21 पूर्वरित २१३५वाणा पाक्षि मसुरशुभारे। उत्पन्न थाय छ ? “ एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा" ४ प्रमाणे २i प्रश्नो નારકેના વિષયમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સૂત્રમાં (પહેલા ઉદ્દેશાના પહેલા સૂત્રમાં) પૂછવામાં આવ્યા છે, એવાં જ પ્રશ્નો અહીં અસુરકુમારના વિષયમાં પણ ५७. स. मा प्रश्न उत्तर मापता महावीर प्रभु के छ -" तहेव वागरणं" गौतम ! २नमा पृथ्वीना सयात भने सध्यात यारानना વિસ્તારવાળા નરકાવાસના નારકોના વિષયમાં આ પ્રશ્નોના જેવા ઉત્તર આપવામાં આવ્યા છે એવા જ ઉત્તરે અહીં અસુરકુમારના અસુરકુમારાવાસના विषयमा ५ सभ७ वा. " नवरं दोहिं वेदेहिं उववज्जति" ५२न्तु ना२।। કથન કરતાં અસુરકુમારોના કથનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે અસુરકુમા२मा पुरुषवे भने श्रीवहन। १ समाप य छे. “ नपुंसगवेयगा न उवव શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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