________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ २०१२ ० ४ पुलस्य सिद्धिनिरूपणम् ६४५ समुप्पन्ने भो देवानुप्रियाः ! अस्ति संभवति खलु निश्येन मम अतिशयं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, यत्- 'देवलोएस णं देवाणं जहणणेणं दसवास सहरलाई तहेजाय वोच्छिन्ना देवा य, देवलोगाय' देवलोकेषु खलु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि तथैव - पूर्वोक्तत्रदेव यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता, समयाधिका इत्यारभ्य sourceमपाधिका तथा उत्कर्षेण दश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तेन परं - तदनन्तरम्, व्युच्छिन्ना देवाथ, देवलोकाश्रेति, 'तएणं आलभियाए नयरीए एरण अभिलावेणं जहा सित्रस्स तं चेत्र से कहमेयं मन्ने एवं ? ' ततः खलु आलभिकायां नगर्याम्, एतेन - पूर्वोक्तेन, अभिलापेन- पुद्गलाला पचचनेन, यथा शिवअतिशयवाले ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुए हैं सो इनके प्रभाव से मैं ऐसा जान सका हूं कि 'देवलोएसु णं देवाण' जहणेण दसवास सहस्साई तहेव जाव वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य' देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति १० हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति एक समय अधिक यावत् दो समय अधिक, तीन समय अधिक, चार समय अधिक, पांच समय अधिक, छह समय अधिक, सात समय अधिक, आठ समय अधिक, नौ समय अधिक, दश समय अधिक संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक होती हुई १० सागरोपमत की है। इस के बाद न देव हैं और न देवलोक हैं । 'तएण आलभियाए नयtए एएण अभिलावेण जहां सिवस्स तं चैव से कहमे यं मन्ने एवं ' इसके बाद इस पुलपरिव्राजक के कहने से उस आलभिका नगरी में जैसा पहिले शिवराजऋषि के संबंध में ग्यारहवें शतक के
देवापिया ! मम अइसेसे नाणदंसणे समुपपन्ने " हे हेवानुप्रियो ! भने अतिશયવાળું જ્ઞાનદર્શન ઉત્પન્ન થયુ છે. તેના પ્રભાવથી હું એવું જાણી દેખી शङ्कु छु } "देवलोपसु णं देवागं जहण्णेण दसवास सहस्थाइ तहेव जाव aroor देवा देवलोगा य" देवसे अमां देवानी धन्यस्थिति इस इन्भर वर्षानी छे. त्यार माह मेड. मे, त्र, यार, पांय, छ, सात, आई नव, દસ, સખ્યાત અને અસખ્યાત સમય અધિક થતી થતી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૦ સાગરોપમ સુધીની હોય છે. તેથી વધારે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા કાઈ દેવ પણ નથી અને દેવલાક પણ નથી.
"तएणं आलभियाए नयरीए एएणं अभिलावेण जहा सिवस्स तंचेव से कहमेयं मन्ने एवं " युद्धस परिवाही या अहारनी अ३पशाने सीधे आसભિકા નગરીના લેાકેામાં આ વિષે ચર્ચા થવા લાગી અને લેાકામાં અહુ ત પ્રરૂપિત તત્ત્વના ખરા કે ખાટા પણા વિષે શ’કા ઉત્પન્ન થઈ તે કારણે લેકામાં કેવી કેવી ચર્ચા અને ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારની વિચારધારા ઉદ્ભવી તે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯