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प्रमेयचन्द्रिकारीका श० ११ उ०१० ० ३ लोकालोकपरिमाणनिरूपणम ४३९ न्यस्पृष्टाः, यावत्-अन्योन्यावगाहा अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धाः, अन्योन्यसमभरघटसया सर्वथा जलभृतघटाकारतया तिष्ठन्ति, हे भदन्त ! अस्ति-संभवति खलु किम् अयं पक्षः अन्योन्यस्य किश्चिद् आपाधां वा-पीडां वा, व्याबाधां वा-विशेषपीडां वा, उत्पादयन्ति ? छविच्छेदं वा-आकृतिभङ्ग वा कुर्वन्ति ? भगवानाह-'णो इणढे सम?' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः नैतत्संभवति, लोकस्य एकस्मिन् आकाशपदेशे एकेन्द्रियादिप्रदेशाः परस्परसंबद्धरपृष्टा अपि नो अन्योन्यस्य किश्चिद् आवाधां वा, व्याबाधां वा उत्पादयन्ति, छविच्छेदं का कुर्वन्ति, गौतमः पृच्छति-से केण्टे णं भंते ! एवं बुच्चइ-लोगस्स णं एगंमि भागासपए से जे जीव प्रदेश, पंचेन्द्रिय जीव प्रदेश और अनिन्द्रिय जीव प्रदेश, अन्योन्य पद्धहोकर अन्योन्य स्पृष्ट होकर यावत् अन्योन्य अन्दगाढ होकर और अन्योन्य स्नेहप्रतिबद्ध होकर, अन्योन्य समभर घट की तरह-सर्वथा जलभृत घट के आकार की तरह रहते हैं, तो क्या हे भदन्त ! वे परस्पर में एक दूसरे को आवाधा-पीडा, व्याबोधा-अत्यन्त पीडा उत्पन्न करते हैं ? और क्या अन्योन्य में एक दूसरे की छवि का-आकृतिका भङ्ग करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'णो इण समटे' हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् ऐसी बात संभवित नहीं होती है कि लोक के एक आकाशप्रदेश में परस्पर संबद्ध एवं स्पृष्ट रूप से रहते हुए भी एकेन्द्रियादि प्रदेश परस्पर में एक दूसरे को थोड़ी सी भी पीड़ा या व्याबाधा उत्पन्न करते हों ! अथवा उनकी आकृति का भंग करते हों.!
अब गौतम स्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'से केणटेण भंते ! एवं बुच्चइ, लोगस्स ण एगंमि आगासपएसे जे एगदियएएसा जाव चिटुंति,
જીવપ્રદેશે અને અને અનિન્દ્રિય જીવપ્રદેશ અન્ય બદ્ધ, અન્ય પૃષ્ટ, અન્ય અવગાઢ અને અન્ય સ્નેહપ્રતિબદ્ધ થઈને સમભર ઘડાની જેમ ( સર્વથા જલપૂર્ણ ઘડાના આકારની જેમ) રહે છે, તે શું તેઓ એક भीतने साधा (पी31), व्यामाया (विशेष पी1) पहायता नथी १ शु. તેઓ એક બીજાની છબિને (આકૃતિને) ભંગ કરતા નથી?
महावीर प्रभुन। उत्त२- “णो इणने सम?" गौतम ! मे सलवी શકતું નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પરસ્પર સંબદ્ધ અને પૃષ્ટ રૂપે રહેલા એકેન્દ્રિયાદિ પ્રદેશો એક બીજાને સહેજ પણ આબાધા અથવા વ્યાબાધા ઉપજાવતા નથી, અને તેમની અકૃતિને ભંગ પણ કરતા નથી.
गौतम स्वाभाना प्रश्न-“ से केणद्वेण भंते ! एव वुच्चइ, लोगस्स ण एगमि आगासपएसे जे एगिदिय पएसा जाय चिति, पत्थिण भंते ! अन्नमन्नस्स
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯