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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० १० सू०१ लोकस्वरूपनिरूपणम् ३९३ क्षेत्रलोकः । तत्र अधोलोकरूपः क्षेत्रलोकोऽधोलोकक्षेत्रलोकः, अत्र मेरुमध्ये किलाऽष्टकपदेशोरुचकस्तस्य चाधस्तनप्रतरस्यायो नयोजनशतपर्यन्तं तिर्यग्लोक स्ततः परमधः स्थितत्त्वात् अधोलोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः। गौतम : पृच्छति-'तिरियलोय-खेतलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ' हे भदन्त ! तिर्यग्कोकक्षेत्रलोकः खलु कतिविधः प्राप्तः? भगवानाह-'गोयमा! असंखेज्जविहे पष्णत्ते' हे गौतम ! तिर्यगलोकक्षेत्रलोकः असंख्येयविधः प्रज्ञप्तः, तत्र रुचकापेक्षया अधःउपरि च नवनायोजनशतमानस्ति यंग रूपत्वात् तिर्यग्लोकरतद्रपः क्षेत्रलोकः तिर्यगृलोकक्षेत्रलोकः, तस्यासंख्येय विधत्व प्रतिपादयति- 'तंजहा-जंबुद्दीव. तिरियलोयखेत्तलोए, जाव सयंभूरमणसमुदतिरियलोयखेसलोए' तद्यथातमः प्रमापृथिवीप अधोलोकक्षेत्रलोक और अधः सप्तमीपृथिवीरूप अधोलो कक्षेत्रलोक मेरू के मध्य में आठ प्रदेश हैं इनका नाम रुचक प्रदेश है इसके अघस्तन प्रतर के नीचे नौ सौ योजन पर्यन्त तिर्यग्लोक है इससे नीचे स्थित होने के कारण अधोलोक कुछ अधिक सातराजप्रमाण का है। अय गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पछते हैं-'तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! काविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! तिर्यग्लोकरूपक्षेत्रलोक कितने मकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम ! ' असंखेज्जविहे पण्णत्ते' तिर्यग्लोकरूपक्षेत्रलोक असंख्यात प्रकार का कहा गया है यह तिर्यग्लोक रुचक के अधस्तन प्रतर नोचे नौ सौ योजनतक है और ऊपर में भी नौ सौ योजन तक है यह तिर्यगरूप है इसलिये इसका नाम तिर्यग्लोक ऐसा हुआ है। यह असंख्यात प्रकार का कैसे है सो अब इसी बात को मृत्रकार प्रकट करते हैं। जंबुद्दीवे "तिरिप्रला पृथ्वी३५ मा क्षेत्र, मने (७) अधःसभी (तस्मतमा ) પૃથ્વીરૂપ અધેલક ક્ષેત્રલેક મેરુની મધ્યમાં આઠ પ્રદેશ છે. તેમનું નામ સૂચક પ્રદેશ છે. તેના અધતન પ્રતરની નીચે ૯૦૦ જનપર્યતમાં તિર્યશ્લોક છે. તેની નીચે રહેલો એ અપેક સાત રાજૂપ્રમાણથી સહેજ મોટે છે.
गौतम स्वामीन। प्रश्न- “ तिरियलोयखेत्तलोरण भंते ! कइविहे पण्णत" હે ભગવન્! તિર્યશ્લેક રૂપ ક્ષેત્રલેકના કેટલા પ્રકાર કહ્યા છે?
मडावी२ अनन। उत्तर-“गोयमा" ३ गौतम! " असंखेन्जबिहे पण्णत्ते " ति ४ ३५ क्षेत्र असण्यात ४२ ॥ . या तियो । ઉપર્યુક્ત ચકપ્રદેશના અધસ્તન પ્રતરની નીચે ૯૦૦ જન સુધીના વિસ્તારમાં પથરાયેલ છે. તે તિર્યગુરૂપ (તિરકસ) હોવાથી તેને તિર્યશ્લોક કહે છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯