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भगवतीसूत्रे भवइ' अज्ञाया आराधको भवति, "अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्य धम्मस्स सिक्वाए उवहिए, समणोवासएवा, समणोवासियावा विहरमाणे" इति संयोज्य अस्य विस्तृतवर्णनम् औपपातिकस्य षट्पञ्चाशत्तमे सूत्रे मत्कृतायां पीयूषवर्षिणीटीकायां विलोकनीयम् , ' तएणं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म, जहा खंदओ जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ' ततः खलु स शिवो राजर्षिः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके-समीपे धर्म श्रुत्वा, निशम्य-हृदिअवधार्य, यथा स्कन्दको राजर्षिः द्वितीये शतके प्रथमोद्देशके प्रतिपादितस्थैवात्रापि शिवो राजर्षिः प्रतिपत्तव्यः यावत्उत्तरपौरस्त्यदिग्भागम्-ईशानकोणम् अपक्रामति, गच्छति, ‘अबक्कमेत्ता सुबहु लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकाइगं एगंते एडेई', उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् आराधक हो जाता है- इस पाठ तक 'अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्त धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे' इस पाठ को योजित करके. इसका विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र के ५६ वें सूत्र की पीयूषवर्षिणी टीका में जो कि मेरे द्वारा रची गई है देख लेना चाहिये. 'तएणं से सिवे राय. रिसी समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म, जहा खंदओ, जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ' इसके बाद वे शिवराजऋषि श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म श्रवण करके
और उसे हृदय में धारण करके स्कन्दक के जैसे यावत् ईशान कोन में चले गये 'अवक्कमेत्तासुबहुं लोही लोहकडाह जाव किढिणसंकाइंग एगंते एडेइ वहां जाकर उन्होंने अनेक अपने लोही, लोहकटाह यावत् किढिणसंकायिक को-वंशनिर्मित पात्रविशेष को-एकान्त में रख दिया. 'एगते " अयमाउसो अगारसामाइए धम्मे पण तें, एयस्स धम्मरस सिक्खाए उवढ़िए, समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे"
" तएण से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म, जहा खंदओ, जाव उत्तरपुरथिम' दिसिभाग अवक्कमइ” ત્યાર બાદ તે શિવરાજષિ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમક્ષ ધર્મશ્રવણ કરીને તથા તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને સ્કન્દની જેમ (યાવત્ ઈશાન કેણુમાં याख्या गया. “ अवकमित्ता सुबहु लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकाइगं एगंते एडेइ" त्यो न तणे पातान भने तवा, या ४ाही, ४७छीमा, तiमार्नु કમંડળ અને કિઢિણ સંકાયિકને (વાંસનિમિત પાત્રવિશેષને) એકાન્ત સ્થાને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૯