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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० ९ ० ३ शिवराजर्षिचरित निरूपणम् ३६७ असंख्यात द्वीपसमुद्ररूपम् अर्थम् - विषयम् श्रुत्वा निशम्य हृदि अवधार्थ, हृष्टतुष्टा सती श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा, यामेव दिशमाश्रित्य प्रादुर्भूता, तामेव दिशं प्रतिगता, 'तरणं हत्थिणापुरे नयरे सिंघाडगजाव पसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खर जाव परूवेई' - ततः खलु हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक यावत् त्रिकचतुष्कचत्वर महापथपथेषु बहुजनः अन्यो न्यस्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्याति यावत्- भाषते, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति'जं णं देवाणु पया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खर, जात्र परूवेइ' - हे देवानुप्रियाः । यत् खलु शिवो राजर्षिः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणाख्याति यावत् भाषते, मज्ञापयति, प्ररूपयति- 'अस्थिणं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणे जाव समुदाय, महावीर से इस प्रकार के अर्थ को विषय को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर बडी प्रसन्न हुई बहुत संतुष्ट हुई- उसने चलते समय प्रभु को वन्दना की उन्हें नमस्कार किया वंदना नमस्कार कर वह जहां से आई थी वहां वापिस चली गई। तरणं हरियणापुरे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खर जाव परूयेइ' इसके बाद श्रृंगाटक यावत्- त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ एवं राजमार्ग इन सब रास्तां के उपर मनुष्य इस प्रकार से कहने लगे यावत् प्ररूपणा करने लगेयहाँ यावत् शब्द से 'भाषते, प्रज्ञापयति' इन क्रियापदों का ग्रहण हुआ 'जं णं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खर, जाव परुवेइ' हे देवानुप्रियो । शिव राजऋषि ने जो ऐसा कहा है यावतू प्ररूपित किया है, कि- अस्थिणं देवाणुपिया ! ममं अइसे से माणे जाव समुदाय तं णो , ળીને તેમને ઘણું! હું અને સતાષ થયેા. ત્યાર બાદ તે પ્રદાએ મહાવીર अलुने वदृथा पुरी, नमस्कार . वहा नमस्कार पुरीने ते अमहा ( परिषह) જ્યાંથી આવી હતી ત્યાં પાછી ફરી. એટલે કે લેાકેા પાતપાતાને ઘેર પાછાં ફર્યો. ત્યાર બાદ શું ખન્યુ તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે 66 तएण इत्थिणापुरे नयरे सिंघाडग जाब पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ, जाब परूवेइ " त्यार माह इस्तिनापुर नगरना श्रृगाट, त्रिभु, ચતુષ્ક, ચત્વર, મહાપથ અને રાજમાર્ગ પર ટોળે મળીને લોકો એક બીજાને એવું કહેવા લાગ્યા, ભાષણ કરવા લાગ્યા, પ્રજ્ઞાપિત અને પ્રરૂપિત કરવા साग्या है " जं ण देवाणुपिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाब परूवेइ હૈદેવાનુપ્રિયા ! શિવરાજઋષિ એવું જે કહે છે, ભાખે છે, પ્રજ્ઞાપિત અને अ३चित रे छे } “ अस्थिण देवाणुपिया ! मम' अइसेसे नाणे जाब समुद्दाय, " 66 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯
SR No.006323
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 09 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages760
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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