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भगवतीसूत्रे भोगभोगान् भुञ्जानो विहाँ प्रभुः, केवलं परियारिडिए, णो चेवणं मेहुणवत्तियं' केवलं-विशेषस्त्वयम्-परिचारद्धर्या-परिचारः स्त्रीशब्दश्रवणरूप-संदर्शनादिरूपः ऋद्धिः सम्पत्तिः परिचारर्द्धिस्त या परिवारर्या वा वनितादिपरिजन-परिचारणामात्रेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहन्तुं प्रभुः किन्तु नो चैव खलु मैथुनमत्ययिकं मैथुनविषयकं यथा भवति तथा न मैथुनवृत्त्या दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहत्तु प्रभुरिति भावः ॥ मू० १ ॥
मूलम्-"चमरस्त णं भंते! असुरिंदस्स असुरकुमाररणो सोमस्त महारपणो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अजो! चत्तारि अग्गमाहसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-कणगा, कणगलया, चित्तगुत्ता, वसुंधरा। तत्थणं एगमगाए देवीए, एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो पभृणं ताओ एगमेगा देवी, अन्ने एगमेगं देवीसहस्सं परिवारं विउवित्तए, एवामेव सपुत्वावरेण बजाये जा रहे हैं ऐसे गीतो को सुनने में एवं नृत्यों को देखने में जो अपना समय व्यतीत करता है यही उसका उस समय का दिव्य भोग भोगों को भोगना है। यही बात 'केवलं परियारिडीए, नो चेव णं मेहु. णवत्तियं' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है। इसका तात्पर्य ऐसा है कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज वह चमर स्त्री शब्द श्रवणरूप एवं उनके रूपों को देखने आदिरूप परिचार से एवं संपत्तिरूप ऋद्धि से अथवा देवी परिजनरूप परिवार द्वारा की गई परिचारणामात्र से दिव्य भोग भोगों को भोगने के लिये तो समर्थ है पर वह मैथुन आदि निमित्तक दिव्य भोगों को भोगने के लिये वहाँ समर्थ नहीं है ॥१० १॥ વામાં આવે છે. આ રીતે તે નાટ્ય, સંગીત આદિરૂપ દિવ્ય ભેગે ભોગવવામાં પોતાનો સમય વ્યતીત કરે છે. એજ વાત સૂત્રકારે નીચેના સૂત્રમાં વ્યક્ત ४री छ-" केवलं परियारिड्ढीए, नो चेव णं मेहुणवत्तिय " मायनन भावार्थ આ પ્રમાણે છે–અસુરેન્દ્ર, અસુરકુમારરાજ ચમર દેવીઓના મધુર ગીતને શ્રવણ કરવા રૂપ અને દેવીઓનાં રૂપોને દેખવારૂપ ૫રિચાર દ્વારા અને સંપતિરૂપ અદ્ધિ દ્વારા અથવા પરિજન રૂપ પરિવાર દ્વારા કરતી પરિચારણરૂપ દિવ્ય ભેગેને ભેગવવાને જ સમર્થ હોય છે. પરંતુ મૈથુન આદિ મિમિત્તક દિવ્ય ભેગેને ભગવાને તે સમર્થ હોતો નથી. આ સૂત્ર ૧
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯