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________________ ५६४ भगवतीने नहानामए-उप्पलेइवा, पउमेइवा, जाव पउमसहस्सपत्तेहवा, पंकजाए, जले सवुड़े णोवलिप्पइ पंकरएणं, णोवलिप्पा जलरएणं' तयथा नाम-उत्पलं वा, पचं वा यावत् कुमुदं वा नलिनं वा सुभगं वा सौगन्धिकं वा कमलं वा, शतपत्र का सहस्रपत्र वा, पङ्के जातं जले संवर्द्धित्तम् नोपलिप्यते पङ्करजसा, नो पलि. प्यते जलरजसा-जलबिन्दुभिः 'एबामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहि जाए, भोगेहिं संवड़े नोवलिप्पइ कामरएणं, णोवलिप्पड़ भोगरएण, गोवलिप्पा मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेण' एवमेव तथैव कमलपत्रवदेवेत्यर्थः जमालिरपि क्षत्रियकुमारः कामेषु जातः, भोगेषु शब्दादि रूपेषु गन्धरसस्पेशेषु संवर्दितोऽपि परिपालितोऽपि वृद्धिमुपागतोऽपि नोपलिप्यते कामरूपरजसा नेके लिये भी उदुम्बर पुरुषकी तरह दुर्लभ है-तब इसके दर्शनकी तो पातही क्या करनी, यह तो दुर्लभ है ही ' से जहानामए उप्पलेइ वा, पउमेइ वा जाव पउमसहस्सपत्तेइ वा, पंके जाए, जले संघुड्डे णोवलिप्पड़, पंकरएणं णोवलिप्पड़ जलरएणं' जैसे कोई एक उत्पल हो, या पद्म हो, यावत् कुमुद हो, नलिन हो, सुभग हो, सौगन्धिक हो, अथवा कमल हो, या शतपत्र हो, या सहस्त्र पत्र हो, ये सब पंक कीचडमें उत्पन्न होते हैं और जल में बढते हैं, परन्तु ये पंक रजसे (कीचड) लिप्त नहीं होते, औरन जलबिन्दुओंसे लिप्त होते हैं 'एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए, भोगेहिं संबुड़े, नोवलिप्पह कामरएणं, णोवलिप्पइ भोगरएणं, गोवलिप्पा मित्तणाहनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं' इसी तरह कमलपत्र की तरह क्षत्रियकुमार जमालि भी कामभोगसे उत्पन्न हुआ है, शब्दादि रूप गन्ध स्पों में पला है-वृद्धिंगत हुआ है-फिर भी यह quel Ainmal vey gam . " से जहा नामए उप्पलेइ वा, पउमेइ षा, जाव पउमसहस्सपत्तेइ वा, पंके जाए, जले संवुड्ढे णोरलिप्पड करणं, जो वलिप्पड जलरएणं "म मे ५, अथवा ५, मया अभुर, અથવા નલિન, સુભગ, સૌગધિક અથવા કમળ અથવા શતાત્ર અથવા સહસ્ત્ર પત્ર પંકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે અને જળમાં જ વૃદ્ધિ પામે છે, છતાં પણ તેઓ પંકજથી પણ અલિપ્ત રહે છે અને જબિન્દુએથી પણ અલિપ્ત જ २७ , " एवामेव" ४ प्रमाणे “ जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहि जाए, भोगेहि संवुड्ढे, नोवलिप्पइ कामरएणं, णोवलिप्पइ, भोगरएणं, णोवलिप्पा मित्तणाइ नियगसयगसंबंधिपरिजगेणं" क्षत्रियभा२ मा म (पासना) દ્વારા ઉત્પન થયે છે, શબદ, ગંધ, સ્પર્શ આદિ ભેગોમાં ઉર્યો છે છતાં श्री. भगवती सूत्र : ८
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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