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________________ भगवतीसूत्र इया उव्वदृति ? पुच्छा' हे भदन्त ! सान्तरं पृथिवीकायिकाः उद्वर्तन्ते ? निरन्तरं पृथिवीकायिकाउद्वर्तन्ते ? इति पृच्छा, भगवानाह-' गंगेया ! णो संतर पुढविकाइया उव्वदृति, निरंतरं पुढविकाइया उव्वदृति ' हे गाङ्गेय ! नो सान्तरं पृथिवीकायिका उद्वर्तन्ते अपितु निरन्तरमेव पृथिवीकायिका उद्वर्तन्ते, एवं जाव वणस्सइकाइया णो संतरं, निरंतरं उन्मृति' एवं पृथिवीकायिकोक्तरीत्या यावत्-अप्कायिक-तेजस्कायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिका अपि नो सान्तरम् उद्वर्तन्ते, अपितु निरन्तरमेव उद्वर्तन्ते । गाङ्गेयः पृच्छति-'संतरं भंते ! बेइंदिया उव्वति, काइया उच्चट्टति, निरंतरं पुढविकाइया उव्वदृति ) पृथिवीकायिक जीव अपने उत्पत्ति स्थान से सान्तर नहीं निकलते है किन्तु अन्तर से रहित ही निकलते हैं। ( एवं जाव वणस्सइकाइया णो संतर निरंतरं उव्वदंति) इसी तरह का कथन यावत्-अप्कायिक तेजस्कायिक, पायुकायिक, वनस्पतिकायिक इन एकेन्द्रिय जीवों में भी जानना चाहिये अर्थात् ये भी अपने उत्पत्ति स्थान से विना समयादिरूप काल के व्यवधान के ही निकलते हैं-इनके निकलने में वहां से समयादिरूप काल का व्यवधान नहीं होता है। अब गांगेय प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(संतरं भंते ! बेइंदिया उव्यइंति, निरंतरं बेइंदिया उव्वति) हे भदन्त ! बेइन्द्रिय जीव क्या अपने उत्पत्ति स्थान से काल के व्यवधान से युक्त निकलते हैं या काल के व्यवधान से रहित निकलते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गंगेया) __महावीर प्रभुन। उत्तर-" गंगेया!" हे गाय! (णो संतर पुटविकइया उज्वटुंति, निर'तर पुढविकाइया उठवट्टति) पृथ्वी थि: ७३ पाताना ઉત્પત્તિ સ્થાનમાંથી સાન્તર ( વ્યવધાન સહિત) નીકળતા નથી પણ નિરંતર નીકળે છે. એટલે કે કોઈ પણ એ સમય પસાર થતો નથી કે જ્યારે Yqीयिनु निभा यतु न 14. ( एवं जाव वणस्सइकाइया णो सतर निरंतर उव्वति) मे प्रभारी अ५यि४, ते४२४यि, वायुयि भने વનસ્પતિકાયિક જીવો પણ સમયાદિ રૂપ કાળના વ્યવધાન સહિત નીકળતા નથી પણ નિરંતર (વિના વ્યવધાન) નીકળે છે. मांगेय ॥। -(स'तर भंते ! इंदिया उन्नति , निर'तर' इंदिया उव्वति ?) B महन्त ! मेन्द्रिय याताना अपत्ति स्थानमाथी શું કાળના વ્યવધાન સહિત નીકળે છે કે કાળના વ્યવધાનથી રહિત નિરંતર નિકળે છે? श्रीभगवती. सूत्र: ८
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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