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प्रमेयचन्द्रिका टी० श०९ उ० ३२ सू० १ वर्तनानिरूपणम् १३ काइया उववज्जति, निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जति ' हे गाङ्गेय ! नो सान्तरं सविच्छेदं पृथिवीकायिका उत्पद्यन्ते, अपितु निरन्तरमेव पृथिवीकायिका उत्पद्यन्ते 'एवं जाव: वणस्सइकाइया' एवं पृथिवीकायिकवदेव यावत्-अकायिक-तेजस्कायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिका अपि सान्तरं सविच्छेदं नोपपद्यन्ते, अपितु निरन्तरमविच्छेदमेव ते उपपद्यन्ते । बेइंदिया जाव वेमाणिया, एए जहा नेरइया' एवमेव द्वीन्द्रियाः यावत्-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकमनुष्य-वानव्यन्तर- ज्योतिष्का वैमानिकाश्च एते यथा नैरयिकाः सान्तरमपि, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते तथैव सान्तरं निरन्तरं चोत्पद्यन्ते ॥ सू० १ ॥
उद्वर्तनावक्तव्यता। अथोत्पन्नानां च सतामुद्वर्तना भवतीत्यतस्तामुद्वर्तनां निस्सरणरूपां प्ररूपयितुमाह-संतरं भंते ' इत्यादि ।
मूलम्--संतरं भंते ! नेरइया उबदति, निरंतरं नेरइया उबदति ? गंगेया ! संतरंपि नेरइया उव्वदंति, निरंतरंपि
पुढविक्काइया उववज्जति) पृथिवीकायिक जीव सान्तर-कालादिक के व्यवधान से उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु वे तो निरन्तर-कालादिक के अव्यवधान से ही उत्पन्न होते हैं (एवं जाव वणस्सइकाइया ) पृथिवी. कायिक की तरह ही यावत्-अप्रकायिक जीव, तेजस्कायिक जीव, वायुकायिक जीव, और वनस्पतिकायिक जीव, भी निरन्तर उत्पन्न होते हैं। (बेइंदिया जाव वेमाणिया-एए जहा नेरहया ) बे इन्द्रिय जीव, तेइन्द्रिय जीव, चौइन्द्रिय जीव, पंचेन्द्रियतियंच, मनुष्य, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये सब भी निरन्तर और सान्तर रूप से दोनों प्रकार की उत्पत्ति वाले होते हैं-अर्थात् ये सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं ॥ सू०१॥ सान्ताना व्यवधानथी ५-न थाय छे. ( एवं जाव वणसह काइया) પૃથ્વીકાયિક જીવની જેમ અપકાયિક, વાયુકાયિક, તેજસ્કાયિક અને વનસ્પતિ अयि ७ ५५ निरन्त२ -1 थया ४२ छे. (बेईदिया जाव वेमाणिया-ए ए जहा नेरहया ) मेधान्द्रय , तेन्द्रिय छ, यतुरिन्द्रिय 941, ५'य. ન્દ્રિય તિર્યંચે, મનુષ્ય, વાનવ્યન્તરે, તિષ્ક દેવે અને વૈમાનિક દેવેની ઉત્પત્તિનું કથન નારકેની ઉત્પત્તિના કથન પ્રમાણે સમજવું. એટલે કે તેઓ સાન્તર પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને નિરન્તર પણ ઉત્પન્ન થાય છે. સૂના
श्री. भगवती सूत्र : ८