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referrer to ८उ०१० सू०८ जीवादीनां पुद्गलपुद्गलिविचारः ५६९ जीवे पोली वि, पोग्गले वि ' हे गौतम! जीवः पुद्गली इत्यपि व्यपदिश्यते, अथ च ' पुद्गलः ' इत्यपि व्यपदिश्यते । गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति' से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ - जीवे पोग्गली कि, पोग्गले कि, ' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन कथं तावत् एवमुक्तरीत्या उच्यते - जीवः पुद्गली अपि अथ च पुद्गलोऽपि व्यपदिश्यते ? भगवानाह - ' गोयमा ! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडे णं दंडी, घडे घडी, पडेणं पडी, करेणं करी ' हे गौतम । तद्यथानाम छत्रेण हेतुना छत्री छत्रमस्यास्तीति, छत्री, दण्डेन हेतुना दण्डी, दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी, घटेन हेतुना घटी, घटोsस्यास्तीति घटी, पटेन हेतुना पटी पटोऽस्यास्तीति पटी, करेण
हैं - (गोमा ) हे गौतम! ( जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि) जीव पुगली भी कहा जाता है और पुद्गल भी कहा जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि जिसमें पुद्गल हो वह पुद्गली और जो पूरण गलन स्वभाववाला हो - अनन्तगुणा हानि वृद्धि वाला हो वह पुल है। गौतम प्रभु से इसी बात को पूछते हैं कि - ( से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चह-जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि) हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जीव पुद्गली भी कहा जाता है और पुद्गल भी कहा जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- (गोमा ) हे गौतम ! ( से जहा नामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी) जैसे कोई मनुष्य छत्र के सम्बन्ध से छत्री कहा जाता है, दण्ड के सम्बन्ध से दण्डी, घट के सम्बन्ध से घटी, पट के सम्बन्ध से पटी और कर के
४ छे-“ गोयमा ! " हे गौतम! ( जीवे पागली वि पांगले वि) लवने પુદ્ગલી પણ કહી શકાય છે અને પુદ્ગલ પણ કહી શકાય છે. કહેવાનું તાત્પ એ છે કે જેમાં પુદ્ગલ હાય તે પુદ્ગલી અને જે પૂરણુ અને ગલનના સ્વભાવવાળુ હોય–અનંતગુણી હાનિવૃદ્ધિવાળું હોય—તે પુદ્ગલ છે.
गौतम स्वाभीनो प्रश्न – ( से केणट्टेणं भाते ! एव' बुच्चइ - जीवे योग्गली वि, पोग्गले वि ? ) हे लहन्त ! आप शा अरथे वुडा छोडे लवने પુદ્ગલી પણ કહી શકાય છે અને પુદ્ગલ પણ કહી શકાય છે ? महावीर अलुना उत्तर- " से जहा नामए छत्तेणं छत्ती, दडेणं दंडी, घणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी" हे गोतम ! प्रेम छत्रना संबंधथी अ વ્યક્તિને છત્રી કહેવાય છે, દંડના સબંધથી દડી કહેવાય છે, ઘટ (ઘડા) ના सम ंधथी घटी (घडी ) उडेवाय छे, पट (वस्त्र) ना समधथी पटी उडवाय छे भने १२ (हाथ) ना संबंधथी उरी ( हाथवाणी ) अहेवाय छे, " एवामेव "
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श्री भगवती सूत्र : ৩