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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ८ उ०९ सू०४ औदारिकशरीरप्रयोगबन्धवर्णनम् २३९ बन्धान्तरं यथा एकेन्द्रियाणाम् तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् , एवं मनुष्याणामपि निरवशेष भणितव्यम् , यावत्-उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् । जीवस्य खलु भदन्त ! एकेन्द्रियत्वे नोएकेन्द्रियत्वे, पुनरपि एकेन्द्रियत्वे एकेन्द्रियौदारिकशरीरप्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन द्वेक्षुल्लकभवग्रहणे त्रिसमयोने, उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र संख्येयवर्ष समभ्यधिके, देशसमय अधिक पूर्व कोटिप्रमाण है । ( देसबंधतरं जहा एगिदियाणं-तहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं) देशबंध का अन्तर जैसा एकेन्द्रिय का कहा गया है उसी प्रकार से समस्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों का जानना चाहिये। ( एवं मणुस्साण वि निरवसेसं भाणियव्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहत्त) इसी तरह से मनुष्यों के भी औदारिक शरीर के बंध का-सर्वबंध का और देशबंध का अन्तर जानना चाहिये-यावत् उत्कृष्ट से वह अन्तमुंहत का है । ( जीवस्स णं भंते ! एगिदियत्ते नो एगिदियत्ते पुणरवि एगिदियत्ते एगिदिय ओरालियसरीरप्पओगबंधतरं कालओ केवच्चिरं होइ ) हे भदन्त ! कोई एक जीव एकेन्द्रियपर्याय में हो और बाद में वह एकेन्द्रिय सिवाय दूसरी कोई जाति में जावे, पुनः वहां से वह एकेन्द्रियपर्याय में आजावे तो ऐसी अवस्थामें एकेन्द्रिय औदारिकशरीरबंध का अंतर कालकी अपेक्षा कितना होता है ? ( गोयमा ) हे गौतम । ( सव्वबंधंतरं जहणणेणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाई तिसमयऊणाई, उक्को. પર્યન્ત અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ પૂર્વકેટિ પ્રમાણ કરતાં એક અધિક સમयतुं छे. ( देसबंध तर जहा एगिदियाण-तहा पचि दिय तिरिक्खजोणियाण) દેશબંધનું અંતર જેવું એકેન્દ્રિયનું કહ્યું છે, એજ પ્રકારે સમસ્ત પંચેન્દ્રિય तिय भ्यानिनु सभा. (एवं मणुस्साण वि, निरवसेसं भाणियव्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमहत्त) मे प्रभारी मनुष्योना पर मोहोरि शरी२५'धन। समंध मन हेश धनु भत२ समन. “अष्टनी अपेक्षा ते मे मन्तभुतर्नु छ,” त्यां सुधार्नु समस्त ४थन अड ४२. ( जीवस्सणं भंते ! एगि दियत्ते नो एगिदियत्ते पुणरवि एगिदिय ओरालियसरीरप्पओगध'तर कालओ केवच्चिर' होड १) महन्त ! ४ मे १ ५i सन्द्रिय पर्यायमा डाय, ५५ ત્યારબાદ તે એકેન્દ્રિય સિવાયની કઈ બીજી પર્યાયમાં જાય, અને ફરી ત્યાંથી એકેન્દ્રિય પર્યાયમાં પાછો આવી જાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં એકેન્દ્રિય मोहा२ि४ शरी२५ धनुं मत२ जनी अपेक्षा ८ डाय छ १ (गोयमा !) 3 गौतम ! सव्वबंधतर जहण्णेण दो खुड्डाई भवग्गहणाई तिसमयऊणाई, શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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