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________________ अहवावि वए एवं, उवएस परस्स देइ एवं तु । भगवतोसूत्रे दस विहवेावच्चे, कायव्व सयं न कुव्वंति ' ॥ २ ॥ www छाया - जात्यादिभिः अव भाषते वर्तते न चापि उपगते ' विनये ' । अतः छिद्रक्षी प्रकाशवादी 'दोषप्रकाशकः ' अननुलोमा 'प्रतिकूलः ॥ १ ॥ अथवाऽपि वदेदेवम् उपदेशं परस्य ददात्येवं तु । दशविधवैयात्यं कर्त्तव्यं स्वयं न कुर्वन्ति ॥ २ ॥ गौतमः पृच्छति - 'गइं णं भंते ! पडुच्च कइ पडिणीया पण्णत्ता ? हे भदन्त ! यः प्रत्यनीकाः मानुष्यत्वादिगतिविरोधिनः प्रज्ञप्ताः, तानेवाह' तं जहा - इह लगा रहता है, छिद्रों की तलाश करता रहता है, उनके दोषों का प्रकाश करता है उनसे हमेशा प्रतिकूल होकर चलता है अथवा गुरुजनों से यों भी कहता है कि दूसरों के लिये उपदेश इस प्रकार से दिया जाता है। गुरुजनों का जो दश प्रकार से वैयावृत्य करना कहा गया है उसे ये स्वयं नहीं करते हैं । इस प्रकार की शिष्यजनों की प्रवृत्ति उनमें प्रत्यनीकता प्रदर्शित करती है। इस प्रत्यनीकता के संबंध से वे शिष्य भी यहां प्रत्यनीक प्रकट किये गये हैं ।। १ ॥ २ ॥ अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते है - ( गइ णं भंते! पहुच कइ पडिणीया पण्णत्ता) मनुष्यत्व आदि रूप गति को लेकर हे भदन्त ! कितने प्रत्यनीक कहे गये है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( गोयमा ) हे गौतम ! (तओ पडिणीया पन्नत्ता ) मानुष्यत्व आदि गति को आश्रित करके प्रत्यनीक- मानुष्यत्वादि गति विरोधी तीन कहे गये हैं- (तं તેમના છિદ્રો શેાધ્યા કરે છે, તેમના દોષાને ખૂલ્લા પાડે છે, તેમની વિરૂદ્ધ વતન રાખ્યા કરે છે, અથવા ગુરુજનાને એમ કહે છે કે તમારે ખીજાને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપવા જોઇએ, જે દશ પ્રકારે ગુરુજનાનું વૈયાનૃત્ય કર વાનું કહ્યું છે તે પ્રમાણે તે તે વૈયાવૃત્ય કરતા નથી; આ પ્રકારની શિષ્યાની જો પ્રવૃત્તિ હાય તા તેમનામાં પ્રત્યનીકતા છે, તેમ કહી શકાય છે. આ પ્રત્યેનીકતાની અપેક્ષાએ એવા શિષ્યાનેપણુ અહી પણ પ્રત્યેનીક જ કહેવામાં આવ્યા છે. हवे गौतमस्वाभी महावीरअलुने सेवा प्रश्न पूछे छे डे- " गइ णं भते ! पहुच कर पडिणीया पण्णत्ता ? " डे लहन्त ! मनुष्यत्व माहि३य जतिनी અપેક્ષાએ પ્રત્યેનીક કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે ? મહાવીર પ્રભુ કહે છે— " गोयमा ! " हे गौतम ! " तओ पडिणीया पण्णत्ता " मनुष्यत्व आदि गतिनी અપેક્ષાએ પ્રત્યેનીક—મનુષ્યત્વ આદિ ગતિવિધી-ત્રણ પ્રકારના ह्या छे, श्री भगवती सूत्र : ৩
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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