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________________ - २०४ भगवती तानेवाह-तं जहा-दिगिछापरीसहे, पिवासापरीसहे जाव दंसणपरीसहे ' तद्यथाजिघत्सापरीषहः स एव बुभुक्षापरीषहः, तपोर्थम् अनेषणीयभक्तपरिहारार्थ मोक्षाभिलापिणा परिषामाणत्वात् बुभुक्षापरीषहः१, एवं पिपासापरीषहः२, यावत्-दर्शनपरीपहोऽपि, यावरकरणात्-३-शीतपरीषहः, ४-उष्णपरीषहः, ५-देशमशकपरीषदः, परीषह बाईस २२ कहे गये हैं। "परित:-समन्तात् स्वहेतुभिः उदीरिता मार्गाच्यवन कर्मनिर्जराथं साधुभिः सह्यन्ते इति परीषहाः" यह परीषह शब्द की व्युत्यत्ति है। साधुओं द्वारा जो मार्ग से च्युत न होने और कर्म की निर्जरा के निमित्त सष ओर से अपने हेतुओं द्वारा उदीरित करके सहन करने योग्य हों उनका नाम परीषह हैं। (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं-(दिगिंछापरीसहे, पिवासापरीसहे जाव दंसणपरीसहे) जिघत्सा परिषह बुभुक्षापरीषह, पिपासा-तृषा परीषह यावत् दर्शनपरीषह; क्षुधा और तृषा की चाहे कैसी भी वेदना हो फिर अंगीकार की हुई मर्यादा के विरुद्ध आहार पानी न लेते हुए समभावपूर्वक ऐसी वेदनाओं को सहन करना सो क्षुधापरीषह और तृषापरीषह है । इन परीषहों को सहन करने का भाव तप संयम की वृद्धि करने के लिये होता है । इसी लिये मोक्षाभिलाषीसाधु अनेषणीय-अप्रासुक आहार पानी का परित्याग करते हुए तजन्य वेदनाओं को शान्ति के साथ सहन करते रहते हैं। यहां यावत् पद से इन निम्नलिखित परीषहों का संग्रह हुआ है-शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, अचेलपरीछ-" परितः-समन्तात् स्वहेतुभिः उदीरिता मार्गाच्यवन कर्मनिर्जरार्थ साधुभिः सह्यन्ते इति परीषहाः " साधु ।। रे भायी श्युत न वान निमित्त નિર્જરાને નિમિત્ત બધી તરફથી પિતાના હેતુઓ દ્વારા ઉદીરિત કરીને સહન ४२वाने योग्य होय, तमनु नाम ५५४ छ. “ त जहा" त परीष नीय प्रभार छ-"दिगिंछापरीसहे जाव दंसणपरीसहे" यत्सापरीष (क्षुधापरीष७) પિપાસા (તૃષા) પરીષહ, યાવત્ દર્શનપરીષહ સુધા અને તૃષાની ગમે તેટલી વેદના હોય છતાં પણ અંગીકાર કરેલી મર્યાદાની વિરૂદ્ધ આહાર પાણી નહીં લેતાં સમભાવપૂર્વક એવી વેદનાઓને સહન કરવી તેનું નામ સુધાપરીષહ અને તુષાપરીષહ છે આ પરીષહેને સહન કરવાને ભાવ તપસંયમની વૃદ્ધિ કરવાને માટે થાય છે. તેથી મોક્ષાભિલાષી સાધુઓ અનેષણય–અપ્રાસુક આહાર, પાણીને પરિત્યાગ કરીને તેના કારણે ઉદ્ભવતી વેદનાઓને શાન્તિપૂર્વક સહન या ४२ . मही जान ' ( यात्) ५४थी नीयन। पशषडा अय ४२वामा આવ્યા છે-શીતપરીષહ, ઉષ્ણુ પરીષહ, દંશમાકપરીષહઅચેલપરીષહ, અરતિ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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