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भगवतीसूत्रो विराधक ? तथा च आलोचना परिणतो सत्यां, कथश्चित्तमाप्तावपि आराधकत्वं संभवति, परिणामशुद्धेःसद्भावात् ।
'सेय संपढ़िए असं पत्ते अप्पणाय पुवामेव अमुहे सिया' स खलु निर्ग्रन्थः संप्रस्थितः किन्तु असं प्राप्तः, गन्तव्यस्थान न प्राप्तः आत्मनाच म्वयमेव पूर्वमेव अमुखः चानादिकारणेन मूकः स्यात् भवेत् — सेणं भंते ! सिं आराहए, चिराहए ?' हे भदन्त ! स निर्गन्धः खलु किम् आराधको भवति किवा विराधको भवति इति प्रश्न : ? भगवानाह-'गोयमा ! आराहए, नो विराहए,' हे गौतम ! स निर्ग्रन्यः आराधको भवति, नो विराधको भवति २) तथा 'सेय सपटिए असंपत्ते अप्पणाय पूवामेव थेराय काल श्रमण आराधकहीहै विराधक नहीं । क्यों कि उसके परिणाम शुद्धिकी
और हैं। अतः आलोचना करनेकी परिणतिका उसमें सद्भाव होनेसे कथंचित् उस आलोचना की प्राप्ति नहीं होने पर भी आराधकता ही संभावित होती है- विराधकता नहीं।
'सेय संपढिए असंपत्त अप्पणा य पुव्वामेव अमुहे सिया' अब गौतमस्वामी प्रभुसे ऐसा पूछते हैं- हे भदन्त ! वह निर्ग्रन्थ श्रमण स्थविरोंके पास जाने के लिये वहांसे चले और चलते २ यदि वह बीच ही में मूक होजावे तो क्या ऐसी स्थिति में वह आराधक है था विराधक है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं. 'गोयमा !' हे गोला ! इस स्थति में वह श्रमण निर्ग्रन्थ दिराधक नहीं है क्यों कि उसके परिणाम शुद्धिकी ओर अग्रेसर हो रहे हैं । ' से य संपढ़िए 'आराहए नो विराहए' नियने आराध ४ गए शय, विराध वाय નહીં કારણકે તેના પરિણામ શુદ્ધિની તરફ છે. તેનામાં આવેચના કરવાની પરિણતિને સદૂભાવ હોવાથી, સંજોગવશાત આલોચના નહીં થઈ શકવા છતાં પણ તેને આરાધક જ કહી શકાય – વિરાધક કહી શકાય નહીં.
से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणाय पुवामेव अमुहे सिया' वे गौतम स्वामी મહાવીર પ્રભુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે “હે ભદન્ત! તે નિગ્રંથ સ્થવિરેની પાસે જવાને માટે રવાના થાય, પરંતુ સ્થવિરેની પાસે પહોંચતા પહેલાં માર્ગમાં જ તે મૂક બની જાય, તો એવી પરિસ્થિતિમાં તેને આરાધક કહેવાય કે વિરાધક?'.
उत्तर :- 'गोयमा !' गौतम ! मेवी परिस्थितिमा ने मारा १ ४२वाय, વિરાધક કહેવાય નહીં કારણકે તેને પરિણામ શુદ્ધિની તરફ આગળ વધી રહ્યાં હોય છે.
गौतम २१मीना प्रम :- ‘से व संपदिए असंपत्ते अप्पणा व पुवामेव
श्री. भगवती सूत्र: