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________________ ६९२ भगवतीसुगे गौतम ! आराधकः, नो विराधकः, स च संपस्थितः संप्राप्तः आत्मना च, एवं संप्राप्तेनापि चत्वार आलापकाः भणितव्याः, यथैव असंप्राप्तेन, निम्रन्थेन च हिः विचारभूमि वा निष्क्रान्तेन अन्यतरद् अकृत्यस्थानं प्रतिसेक्तिम्, तस्य खलु एव भवति-इहैव तावद् अहम् एवम्, अत्रापि एते चैव अष्ट बालापकाः हे गौतम ! (आराहए नो विराहए) वह निग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं। (से य संपट्टिए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तण वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा जहेव असंपत्तेणं) वह निग्रंन्थ स्थविरों के पास जावे और पहुँचते ही वह मूक हो जावे तो ऐसी स्थिति में वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? इत्यादि संप्राप्तके चार आलापक असंमाप्तके चार आलापकों की तरह कह लेना चाहिये ? (णिग्गथेण य बहिया वि यारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खंतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए तस्सणं एवं अवइ-इहेब ताव अहं एवं एत्थ वि एए चेव अg आला. वगा भाणियव्वा जाव नो विराहए) किसी निर्ग्रन्थ ने बाहर नीहार भूमि की ओर अथवा विहार भूमि की ओर जाते हुए किसी एक अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन कर लिया हो बाद में उसके मन में ऐसा विचार आवे कि मैं पहिले यहीं पर उस अकत्यस्थान की आलोचना आदि करू इत्यादि पहले की तरह यहां पर भी ये हो आठ आलापक कहना चाहिये, यावत् वह निर्ग्रन्थ विराधक नहीं है। डेवाय पिरा ! ( गोयमा! आराहए नो विराहए ) गौतम! तन मारा २४ गाय, विरा५ ५ नडी. (सेय संपढ़िए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तण वि चत्तारि आलावागा भाणियवा जहेव असंपत्तेणं) ते निय સ્થાવિરેની પાસે પહોંચતા જ મૂક થઈ જાય, તો તેને આરાધક કહેવાય કે વિરાધક આ રીતે ત્યાં અસંપ્રાપ્ત (ન પહોંચેલા) નિગ્રંથ વિષેના જેવા ચાર આલાપ કહેવામાં આવ્યા છે, એવાંજ ચાર આલાપકે સંપ્રાપ્ત (ત્યાં પહોંચેલા) નિર્ગથ વિષે પણ કહેવા नये. (णिग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि या णिक्खंतेणं अन्नयरे अकिचहाणे पडिसेविए तस्सणं एवं भवइ-इहेव ताव अह एवं एत्थ वि एए चेव अट्ठ आलावगा भाणियबा जाव नो विराहए) अधिनियम નીહારભૂમિ તરફ અથવા વિહાર ભૂમિ તરફ જતાં કોઈ એક અકૃત્યસ્થાનનું પ્રતિસેવન કરી નાખ્યું. ત્યાર બાદ તેના મનમાં એવો વિચાર આવે છે કે હું પહેલાં અહીં જ તે અકૃત્યસ્થાનની આલેચના આદિ કરી લઉં. અહીં પણ આગળ મુજબ આઠ આલાપક કહેવા જોઈએ. “તે નિગ્રંથ વિરાધક ન ગણાય, ત્યાં સુધીનું સમસ્ત કથન અહીં ગ્રહણ श्री. भगवती सूत्र :
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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