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________________ भगवतीसूत्रे भाण्डम् अनुगवेषयति, तस्य खल्ल भदन्त ! तैः शीलवतगुणविरमण पत्याख्यानपोषधोपवासस्तद भाण्डम् अभाण्ड भवति? हन्त अभाण्ड भवति, तत् केन पुनः खलु अर्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - स्वकीय भाण्ड अनुगवेषयति, नो परकीयं वेसइ, परायगं भंड अणुगयेसह, गोयमा ! सयं भंडं अणुगवेसह णो परायगं भंडं अणुगवेसइ) हे भदन्त ! कोई श्रावक हो और उसने सामायिकधारण करली हो-और वहीं उपाश्रय में वह बैठा हो- अब यदि कोई उसके भाण्डांका अपहरण करता है (चुरा लेता है) तो हे भदन्त ! वह सामायिक के बाद उन भांडांकी गवेषणा करता है-तो क्या वह उन अपने भांडोंकी गवेषणा करता है? या दूसरों के भाण्डोंकी गवेषणा करता है ? (गोयमा) हे गौतम ! (मयं भंडं अणुगवेसइ, नो परायगं भंडं अणुगवेसह) वह श्रावक अपने भांण्डों की गवेषणा करता है-दूसरों के भाण्डोंकी वह गवेषणा नहीं करता है। (तस्स णं भंते ! तेहिं सीलव्वयगुणवेरमणपञ्चक्रवाणपोमहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवइ ?) हे भदन्त ! उन शीलवत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से उस श्रावकका वह अपहृत (चुराया हुआ) भांड अभाण्ड हो जाता है क्या ? (हंता भवइ) हां, गौतम! वह अभाण्ड होजाता है। (से केणं खाइणं अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ, सयं भंडं अणुगवेसह, णो परायगं भंडं अणुगवेसइ) हे भदन्त ! यदि वह उसका अभाण्ड हो जाता है तो फिर आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वह समाणे किं सयं भंडं अणुगवेसइ, परायगे भंड अणुगवेसइ गोयमा ? सयं भंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ ?), महन्त ! मे શ્રાવક સામાયિક ધારણ કરીને ઉપાશ્રયમાં બેઠે છે. ત્યારે કે તેનાં ભાંડ [વસ્ત્ર, આભૂષણદિ] ચરી જાય છે. ત્યાર બાદ સામાયિક પૂરી થયા પછી જે તે શ્રાવક તે ભાંડેની તપાસ કરે, તે શું તે શ્રાવક પોતાનાં તે ભાંડેની તપાસ કરે છે? કે અન્યના ભાંડેની તપાસ કરે છે? (गोयमा !) है गौतम ! (सयं भंडं अणुगवेसइ, नो परायगं भंडं अणुगवेसइ) હે ગૌતમ તે શ્રાવક પિતાનાં ભાડેની શોધ કરે છે – પારકાં ભાંડેની શોધ કરતે નથી. ( तस्सणं भंते ! तेहिं सीलन्चयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवई) हे महन्त ! ते शवव्रत, गुणवत, वि२भव्रत, प्रत्याभ्यान भने પૌષધોપવાસથી શુ તે શ્રાવકનાં તે ચેરાયેલાં ભાંડ અભાંડ બની જાય છે ખરાં? (हंता भवइ) 8. गौतम ! ते समi3 सनी लय छे. ( से केणं खाइणं अद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ, सय भंडं अणुगवेसइ, णो परायगं भडं अणुगवसइ) હે ભદન્ત! જો તે તેના પિતાનાં અભાંડ થઈ જાય છે, તો આપ શા કારણે એવું કહી श्री. भगवती सूत्र :
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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