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________________ ३८० भगवतीसूत्रे अवधिज्ञानिनः, केचिद् विभङ्गज्ञानिनश्च भवन्ति, केचिन्न भवन्ति अतः त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानानि वा, द्वे वा ज्ञाने, अज्ञाने वा तेषां भवतः, इति भावः । 'मणुस्सा जहा सकाइया' मनुष्याः पर्याप्तकाः यथा सकायिकाः भजनया पश्चज्ञानिनः, त्र्यज्ञानिनश्चोक्तास्तथा भजनया पंचज्ञानिनः, व्यज्ञानिनश्च वक्तव्याः, 'वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया जहा नेरइया' पर्याप्तकाः वानव्यन्तराः, ज्योतिषिकाः, वैमानिकाच देवाः यथा नैरयिका नियमतस्त्रिज्ञानिनश्चोक्तास्तथैव नियमात् त्रि ज्ञानिनः, त्र्य ज्ञानिनश्च बोध्याः। अथ अपर्याप्तकविषये गौतमः पृच्छति-'अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ?' हे भदन्त ! अपर्याप्तकाः खलु वाले होते हैं और कोई२ पर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकजीव मतिज्ञान श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानवाले होते हैं । इसी लिये भजनासे तीनज्ञानवाले उन्हें कहा गया है । इसी तरह जो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यग्योनिकजीव अज्ञानी होते हैं वे कितनेक तो तीन अज्ञानवाले होते हैं और कितनेक दो अज्ञान वाले होते हैं। इसलिये भजनासे इन्हें तीन अज्ञानवाले कहा गया है। 'मणुस्सा जहा सकाइया जिस प्रकार सका. इया' जिस प्रकार सकायिकजीवोंको भजनासे पांचज्ञानवाला कहा गया है उसी तरहसे पर्याप्तक मनुष्य भजनासे पांचज्ञानवाले और तीन अज्ञानवाले होते हैं ऐसा जानना चाहिये । 'वाणमंतरा जोहसिया बेमाणिया जहा नेरइया' जिस प्रकारसे नैरयिकजीव नियमतःविज्ञानी और व्यज्ञानी होते हैं उसी प्रकारसे पर्याप्तक वानव्यन्तर, ज्योतिषिक, और वैमानिकदेव भी नियमतः त्रिज्ञानी और व्यज्ञानी होते हैं। अब अपर्याप्तके विषयमें गौतम प्रभुसे एसा पूछते हैं 'अपजत्ता गं भंते ! जोवा किनाणी अन्नाणी' हे भदन्त ! अपर्याप्तक जीव क्या ज्ञानी પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ કેનિક જીવ મતિજ્ઞાન, કૃતજ્ઞાન એ બે જ્ઞાનવાળા હોય છે. એટલા માટે જ ભજનાથી ત્રણ જ્ઞાનવાળા તેઓને કહેલા છે. એ જ રીતે જે પંચેન્દ્રિય પર્યાપ્તક તિર્યંચ જેનિક જીવ અજ્ઞાની હોય છે. તેઓ કેટલાક ત્રણ અજ્ઞાનવાળા અને કેટલાક એ અજ્ઞાનવાળા હોય છે. એટલા માટે ભજનાથી તેઓને ત્રણ અજ્ઞાનવાળા કહેલા છે. 'मणुस्सा जहा सकाइया' वारीत सहायिवान मानाथ पांय ज्ञान भने ત્રણ અજ્ઞાનવાળા કહ્યા છે. તેવી રીતે પર્યાપ્તક મનુષ્ય ભજનાથી પાંચ જ્ઞાનવાળા અને ત્રણ અજ્ઞાનવાળા હોય છે એમ સમજવું. હવે અપર્યાપ્તકના વિષયમાં ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને પૂછે છે કે 'अपज्जत्ताणं भंते जीवा किं नाणी अन्नाणी' अपर्याप्त ७१ शु श्री. भगवती सूत्र :
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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