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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ८ उ. १ सू. २३ सूक्ष्मपृथिवीकायस्वरूपनिरूपणम् २४५ संयोगेन उपयुज्य यत्र यावन्तः संयोगा उतिष्ठन्ते ते सर्वे भणितव्याः, एते पुनः यथा नत्रशतके प्रवेशन के भणिष्यामस्तथा उपयुक्तेन भणितव्याः यावत्असंख्येयाः अनन्ताः, एवमेत्र, नवरम् एक पदम् अभ्यधिकम्, यावत् - अथवा अनन्तानि परिमण्डलसंस्थानपरिणतानि यावत् अनन्तानि आयतसंस्थानपरिणतानि ।। ० २३ ॥ टीका - अथ द्रव्यचतुष्कपरिणाममधिकृत्य प्राह- 'चत्तारि भंते ! इत्यादि । ' चत्तारि भंते! दव्वा किं पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया ?' जत्थ जस्थिया संयोगा उट्ठेति ते सव्वे भाणियव्वा) जहां पर जितने संयोग उपयोगपूर्वक विचारपूर्वक संभवित हो उतने वे सब संयोग वहां पर कहना चाहिये । (एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणिहामो तहा उवजुंजिऊण भाणियव्वा) ये सब संयाग नौवें शतक के प्रवेशन अर्थात् बत्तीसवें उद्देशक में जिस प्रकार से कहे जावेंगे, उपयोगपूर्वक उस प्रकार से विचार करके उन्हें कहना चाहिये । (जाव असं खेज्जा अनंता, एवं चेव-नवरं एक पदं अन्भहियं) यावत - असंख्यात, अनन्त द्रव्योंके परिणाम इसी प्रकार से जानना चाहिये । परन्तु - एक पद अधिक करके कहना चाहिये । जाव अहवा अनंत परिमंडल संठाणपरिणया जाव अनंता आययसंठाण परिणया) यावत्-अथवा - अनन्तद्रव्य परिमंडल संस्थान रूप से परिणत होते हैं- यावत्-अनन्तद्रव्य आयत संस्थानरूपसे परिणत होते हैं । टीकार्थ - इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने द्रव्य चतुष्क आदिके परिणामको अधिकृत करके कहा है. इसमें प्रभुसे ऐसा पूछा है 'चन्तारि भंते ! भाणियन्ना' क्या भेटला संयोग उपयोगपूर्व - विद्यारपूर्व संलवित होय तेटसा ते तमाभ संयोग त्यां सभक सेवा ( एए पुण जहा नवमसये पवेसणए भणिहामो तहा उवजु जिऊण भाणियन्वा ते तमाम सयोगी नवमा शतना प्रवेश પર્યંત જે રીતે કહેવામાં આવશે, ઉપયાગપૂર્વક તે રીતે વિચારીને સમજી લેવા. जाव असंखेज्जा अनंता एवं चेव-नवरम् एकं पदं अमहियं ' यावत् असंख्यात અનંત દ્રવ્યેનું પરિણમન આજ રીતે સમજી લેવું, પરંતુ એક પદ વધારીને કહેવું लेखे. " जाव अहवा अणंतपरमंडलसंठाणपरिणया जाव अनंता आययसंठाणपरिणया યાવત્ અન ંત દ્રવ્ય પરિમંડલ સંસ્થાનરૂપથી પરિણત હાય છે— યાવત્ અનંત દ્રવ્ય આયત સંસ્થાનરૂપથી પરિણત હોય છે. ટીકા – આ સુત્રવડે દ્રવ્ય ચતુષ્કાદિના પરિણામને અધિકૃત કરીને કહ્યું છે. श्यामां गौतम स्वाभीखे असुने खेतुं पूछयुं छे - ' चत्तारि भंते दव्वा किं पओग શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૬
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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