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________________ ६३४ भगवतीमूत्र पकामनिकरणं वेयणं वेएइ ?' हे भदन्त ! कथं खलु प्रभुरपि-समनस्कतया रूपदर्शनसमर्थोऽपि प्रकामनिकरणं तीव्राभिलाषपूर्वकं वेदनां वेदयति ? भगवानाह'गोयमा ! जे णं नो पभू समुदस्स पारं गमित्तए' हे गौतम ! यः खलु संशिस्वेन रूपदर्शनशक्तिसम्पन्नोऽपि नो प्रभुः नैव समर्थः समुद्रस्य पारं गन्तुम् , तस्य समुद्रपारवर्तिद्रव्यप्राप्त्यर्थित्वे सत्यपि पारगमनशक्तिवैकल्यात्, अत एव 'जेणं नो पभू समुदस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए' यः खलु रूपदर्शनशक्तिसम्पन्नोऽपि पारगमनशक्तिवैकल्यात् नो प्रभुः नैव समर्थः समुद्रस्य पारगतानि पारवर्तीनि रूपाणि द्रष्टुम्, एवं 'जेणं नो पभू देवलोगं गमित्तए' यः खलु पभू वि पकामनिकरणं वेयणं वेएई' भदन्त ! इसमें कारण क्या है जो समनरक होने पर भी रूप दर्शनमें बना हुआ पाणी तीव्र अभिलाषापूर्वक वेदनाका वेदन करता है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं नो पभू समुहस्स पारं गमित्तए' जो जीव संज्ञी होनेसे रूपदर्शनकी शक्तिसे सम्पन्न भी वह समुद्रके पार जाने के लिये शक्त नहीं हो सकता है अर्थात् समुद्र पारवती द्रव्यकी प्राप्तिकी कामनावाला बना हुआ भो प्राणी पारगमन की शक्तिके अभावके कारण समुद्रको पार नहीं कर सकता है और इसी कारण 'जे णं नो पभू समुदस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए' जो रूपदर्शनकी शक्तिसे संपन्न होने पर भी पारगमनकी शक्तिके अभावके कारण समुद्र पारगतरूपोंको पदार्थों को देखनेके लिये समर्थ नहीं होता है एवं जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए' जो समनस्क 'कहं णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेयणं वेएइ ?' 3 महन्त ! समन४ હોવાથી રૂપદર્શન કરવાને સમર્થ હોય એ સંજ્ઞી જીવ પણ શા કારણે તીવ્ર मनिषा पूर्व वहनानु वेहन ४२ छ ? उत्तर- 'गोयमा गौतम! 'जे णं नो पभू समुहस्स पार गमित्तए' २७१ सशी वाथा ३५६शननी तिथी યુકત પણ છે, એવો જીવ પણ સમુદ્રને સામે પાર જવાને શકિતમાન હોઈ શકતા નથી. એટલે કે તે જીવ સમુદ્રને પેલે પાર રહેલી વસ્તુને પ્રાપ્ત કરવાની કામનાવાળો હોવા छतi पाशमाननी शतिने २मा समुद्र ने पा२ ४४ ते नथी, 'जेणं नो पभ्र समुदस्स पारगयाई रूवाइं पासित्तए' ले ७१ ३५६शननी शतिवाण छ, ५५ પારગમનની શકિતનો અભાવ હોવાને કારણે સમુદ્રને પેલે પાર રહેલા રૂપને ( पनि) aj ४ाने समर्थ खात नथी, भने 'जेणं नो पभू देवलोगं गमित्तए' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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