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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ. ५ मू.१ तिर्यग्योनिसंग्रहस्वरूपनिरूपणम् ५०३ मोध्याः, तथाचोक्तं जीवाभिगमे 'अंडया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। एवं पोयया वि । तत्थणं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा' इत्यादि । छाया-अण्डजाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः-तद्यथा-त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाः, एवं पोतजा अपि, तत्र खलु ये ते संमूच्छिमाः ते सर्वे नपुंसकाः, इत्यादि । तदवधिमाह-यावत् 'नो चैव खलु तानि विमानानि व्यतिव्रजेत्= उल्लङ्घयेत् , हे गौतम ! इयन्महालयानि खलु एतावद्विस्तृतानि तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तथा च यावत्करणात् 'अस्थि विमाणाई विजयाई, वेजयंताई, जयंन्ताइं अपराजियाई ? हंता, अस्थि, तेणं भंते ! विमाणा केमहालया ये विमान इतने बडे हैं कि ईन्हें कोई उल्लंघन नहीं कर सकता है यहां पर भी कथन जानना चाहिये। जीवाभिगमसूत्रमें जो इस विषयमें कहा गया हैं वह इस प्रकारसे है- 'अंडया तिविहा पण्णत्ता' अंडज जीव तीन प्रकारके कहे गये हैं 'तंजहा' वे इस तरहसे है'इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा' स्त्री, पुरुष और नपुंसक ‘एवं पोयया वि' इसी प्रकारसे पोतज भी तीन प्रकारके होते हैं। 'तत्थणं जे ते समुच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा' जितने भी संमूर्छिम जन्मवाले हैं- वे सब जीव नपुंसक वेदनावाले होते हैं। यहां पर 'एवं जहा जीवाभिगमे जाव ‘णोचेव णं ते विमाणे वीइवएन्जा' इत्यादियावत्पदसे 'अस्थि, विमाणाई विजयाइं वेजयंताई, जयंताई, अपराजियाइं? हंता, अस्थि, ते णं भंते ! विमाणा के महालया पण्णता? ગ્રહણ કરવું. તે કથન ક્યાં સુધી ગ્રહણ કરવું, એ સમજાવતા સૂત્રકાર કહે છે કે હે ગૌતમ! તે વિમાને એવડાં મેટાં છે કે કોઈ તેમને ઓળંગી શકતું નથી. અહીં સુધીનું કથન ગ્રહણ કરવું. આ વિષયને અનુલક્ષીને જીવાભિગમસૂત્રમાં આ પ્રમાણે ह्य छ- 'अंडया तिविहा पण्णत्ता' म०४ ७ am ना ४ा , "तंजहा। तेत्र २ मा प्रभारी छ- ' इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा' (१) श्री, पुरुष मन (3) नस एवं पोयया वि' मे प्रमाणे पाता ५ त्रय मारना डाय छे. 'तत्थणं जे ते संमच्छिमा - ते सव्वे नसगारेटमा भूमि मणां वे थे, ते मानस वा छे. महीं एवं जहा जीवाभिगमे जावणो चेव णं ते विमाणे वीडवरजा' त्या सूत्रपामारे जाव (यावत )' ५६ १५यु छ, तथा नीया सत्राने अY ४२वामा माया - 'अस्थि विमाणाई विजयाई, वेजयंताई, जयंताई, अपराजियाई ? इंता, अस्थि, तेणं भंते ! विमाषा के महालया पण्णता ? गोयमा! जावइयं च णं सरिए શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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