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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ६ उ. ६ सू. २ मारणान्तिकसमुद्घातस्वरूपनिरूपणम् ३१ अण्णय र सि बेइंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए '' असंख्येयेषु द्वीन्द्रियावा सशतसहस्रेषु असंख्यलक्षद्वीन्द्रियावासेषु अन्यतरस्मिन् एकस्मिन द्वीन्द्रियावा से द्वीन्द्रियतया उपपत्तुं जन्म ग्रहीतुं भव्यः योग्यो वर्तते ' से णं भंते ! तत्थ गए चैत्र ०१' हे भदन्त ! स खलु द्वीन्द्रियावासयोग्यो जीवः तत्र गत एव, द्वीन्द्रियावासं प्राप्तः सन्नेव किम् आहरेद् वा, परिणमयेद् वा, शरीर वा बध्नीयात् ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'जहा नेरइया एवंजाब - अणुत्तरोवाइया' हे गौतम! यथा नैरयिका : नैरयिकसम्बन्धिनः द्विविधाः तत्र गत एव आहरेद् वा परिणमयेद् वा शरीर वा बध्नीयात् इत्येक आलापकः समवहत होता हुआ जो जीव 'असंखेज्जेसु बेइंदियावास सयस हस्सेसु अण्णयरंसि बेइंदियावासंसि वेइंदियत्ताए उववज्जित्तए भविए' असंख्यात लाख दोइन्द्रियावासोंमें से किसी एक दोइन्द्रियावास में उत्पन्न होनेके योग्य है ' से णं भंते । तत्थगएचेव' ऐसा वह जीव क्या उस दोन्द्रियावास में पहुँचते ही आहार ग्रहण करने लगता है ? उस आहारको क्या वह परिणमाने लगता है ? परिणमित हुए उस आहारसे क्या वह अपने दोइन्द्रियावास योग्य शरीरका बंधन करने लगता है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि 'जहा नेरइया एवं जाव अणुतरोववाइया' हे गौतम! जिस प्रकार से नारकोंके विषयमें कहा गया है उसी प्रकारसे यावत् अनुत्तरोपपातिकतकके जीवोंके विषयमें भी जानना चाहिये अर्थात् जैसे मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ कोह जीवकि जो कोई एक नरकावास में उत्पन्न होनेके योग्य है थये। ? लव असंखेज्जेसु बेइंदियावाससयस हस्सेसु अण्णयर सि बेइंदियावासंसि बेदियत्ताए उववज्जित्तर भविए' असं यात साथ द्वीन्द्रियावासीभांना अध थोड द्वीन्द्रिय यावासभा द्वीन्द्रिय पर्याये उत्पन्न थवाने योग्य होय, 'से णं भंते ! तत्थगए चेव' व ते व ते द्वीन्द्रिय व्यावासभां पडयितानी साथै ४ महार ગ્રહણ કરવા માંડે છે? શું તે આહારનું તે પરિણમન કરવા માંડે છે ? તથા શુ પરિમિત થયેલા આહારથી તે દ્વીન્દ્રિયાવાસયોગ્ય શરીરનું નિર્માણ કરવા માંડે છે? તેના ઉત્તર આપતા મહાવીર પ્રભુ કહે છે– जहा नेरइया एवं जाव अणुत्तरोववाइया' हे गौतम! ? प्रमाणे नाराना विषयभां बालां यान्यु छे, એજ:પ્રમાણે અનુત્તરોપપાતિક પર્યન્તના જીવાના વિષયમાં પણ સમજવું. જેમકે‘મારણાન્તિક સમુદ્ધાતથી યુકત થયેલા કોઈ જીવ કે જે કઇ એક નારકવાસમાં ઉત્પન્ન
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ