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________________ ३०७ चन्द्रिकाटीका श. ७ उ. १ सू. ८ अनगारविशेषवक्तव्यता निरूपणम् माण- माया-लोभा वोच्छिन्ना भवंति ' हे गौतम ! यस्य खलु जीवस्य क्रोधमान- माया लोभाः व्युच्छिन्नाः सर्वथा क्षीणा उपशान्ता वा भवन्ति, 'तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ' तस्य खलु क्षीणोपशान्तक्रोध- मान-मायालोभस्य ऐर्या पथिकी क्रिया क्रियते भवति णो संपराइया किरिया कज्जइ' नो सांपरा यकी क्रिया क्रियते किन्तु 'जस्स णं कोह-माया लोभा अवोच्छिन्ना भवंति ' हे गौतम ! यस्य खलु जीवस्य क्रोध-मान-माया - लोभा: अव्युच्छि - नाः सर्वथा अक्षीणाः अनुपशान्ता वा भवन्ति 'तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ, णो इरियावहिया किरिया कज्जइ' तस्य खलु अक्षीणानुपशान्तक्रोधमान माया लोभस्य जीवस्य सांपरायिकी क्रिया क्रियते भवति न ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते । अथ च ' अहासुतं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ' यथासूत्र सूत्रमनतिक्रम्य रयतः शास्त्रानुसारं विहरतः अनगारस्य ऐर्यापथिकी जिस साधुके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों हो सर्वथा क्षीण होगये हैं, या उपशान्त होगये हैं 'तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्ज' उस साधुके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । तथा 'जस्स कोह, माण, माया, लोभा अवोच्छिन्ना भवति' जिस साधुके क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों ही क्षीण नहीं हुए हैं, या उपशान्त नहीं हुए हैं ऐसे अक्षीण या अनुपशान्त क्रोध, मान, माया, लोभवाले जीवके 'संपराइया किरिया कज्ज' सांपरापिकी क्रिया होती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती है। 'अहासुत्तं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कज्जइ' तथा जो सूत्रकी मर्यादाको उल्लंघन नहीं करके शास्त्र के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करता है ऐसे अनमारके ऐर्यापथिकी माण, माया, लोभा, वोच्छिन्ना' ने साधुना हाथ, भान, માયા અને લેાક્ષ સર્વોથા ક્ષીણુ થઈ ગયા હેાય છે, અથવા ઉપશાન્ત થઇ ગયા હેાય છે, " तस्स णं ईरियाasया किरिया कज्जइ' ते साधु द्वारा भैर्याचथिडी दिया थाय छे, तथा 'जस्स णं कोह, माण, माया, लोभा अवोच्छिन्ना भवंति' ? साधुना अघ, માન, માયા અને લાભ ક્ષીણુ થયા હાતા નથી, અથવા ઉપશાન્ત થયા હોતા નથી એવા અક્ષીણુ અથવા અનુપશાન્ત ક્રોધ, માન, માયા અને લેભવાળા સાધુ દ્વારા "सं' पराइया किरिया कज्जइ' सांथरायिडी डिया उराय छे - मैर्यार्थथिडी प्रिया थती नथी. 'अहासुतं रीयमाणस्स ईरियात्रहिया किरिया कज्जइ' > સાધુ શાસ્ત્રની મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરતા નથી અને શાસ્ત્રના આદેશ પ્રમાણે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે, એવા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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