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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ६ उ.८ म.३ लवणसमुद्रस्वरूपनिरूपणम् १५५ णामा वि, जीव परिणामावि, पोग्गलपरिणामा वि' इत्यादि । तथा सर्वजीवानाम् उत्पादो नेतव्यो द्वीपसमुद्रेषु, तथाहि-'दीव-समुद्देसु णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता पुढविकाइयत्ताए, जाव- तसकाइयत्ताए उववानपुव्वा ? हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो त्ति' अन्ते गौतमः प्राह- 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! तदेवं भवदुक्तं सत्यमेव, हे भदन्त ! तदेवं भवदुक्तं सत्यमेवेति भावः ॥ मू० ३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-पद्धिवाचक-पञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापक-प्रविशुद्ध-गधपधनैकग्रंथनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराज-प्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारी-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालबतिविरचितायां "श्री भगवतीमूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां षष्ठशतके अष्टमोद्देशकः
सम्पूर्णः ॥६-८॥
जानना चाहिये- 'दीव समुद्देसु णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता, पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुवा ? हंता, गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो ति" गौतमस्वामीने प्रभु से ऐप्ता पूछा है कि हे भदन्त ! द्वीपो और समुद्रों में समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव, समस्त सत्व क्या पहिले पृथिवीकायिक रूप से यावत् त्रसकायिक रूप से उत्पन्न हो चुके हैं ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि हां, गौतम ! समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव, समस्त सत्त्व अनेक द्वीपों और समुद्रों में अनेक बार अथवा अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं। प्रभु द्वारा इस प्रकार का प्रतिपादन सुनकर
गौतम २वाभानो प्रश- दीवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता पुढविकाइयचाए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुव्वा ? " मन्त! દ્વીપ અને સમુદ્રોમાં શું સમસ્ત પ્રાણ, :સમસ્ત ભૂત, સમસ્ત જીવ અને સમરત સર્વ પૃથ્વીકાયથી લઈને ત્રસકાય પર્યન્તની પર્યાયમ પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયાં છે?
महावीर प्रभुतेन। उत्तर आता ४ - "हंता, गोयमा! अदुवा अणंतखत्तो नि" , गौतम ! समरत प्राणु, भूत, ७१ अने सत्य सामने वार 2424
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫