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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ० १ सू० ४ लवण समुद्रवक्तव्यतानिरूपणम्
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'उदीचि - पाईण मुग्गच्छ० ' उदीचीप्राचीनम् तदुभयदिगन्तरम् ईशानकोणम् उद्गत्य उदयं प्राप्य प्राचीन - दक्षिणम् आग्नेयकोणम् आगच्छतः ? अस्तं गच्छतः किम् ? प्राचीन - दक्षिणम् आग्नेयकोणम् उद्गस्य, दक्षिण - प्रतीचीनम् नैऋत्यकोणम् आगच्छतः ? इत्यादि जम्बूद्वीपोक्तवत् प्रश्नः कल्प्यः । भगवानाह - जच्चैव जंबुद्दीवस्स' या चैव जम्बूद्वीपस्य ' वक्तव्वया ' वक्तव्यता अत्रैव पूर्वतृतीयसूत्रे' भणिया' भणिता ' सच्चेव सव्वा ' सा चैव सर्वा ' अपरिसेसिया' अपरिशेषिका सम्पूर्णा ' लवणसमुद्दस्स वि' लवणसमुद्रस्यापि ' भाणियव्वा ' भणितव्या, तथा च जम्बूद्वीपप्रकरणोक्तसुत्ररीत्या 'उदीची- प्राचीनम् उद्गत्य (लवणे समुद्दे ) लवण समुद्र में ( सूरिया) दो सूर्य ( उदीचि पाईणमुग्गच्छ० ) उदीचि प्राचीन दिशाओं के अन्तरालरूप ईशानकोण में उदित होकर प्राचीन दक्षिण दिशा के अन्तरालरूप आग्नेयकोण में अस्त होते है क्या ? इसी तरह से आग्नेयकोण में उदित होकर नैऋन्यकोण में अस्त होते हैं क्या ? इत्यादि रूप से जंबूद्वीप के प्रकरण में कहे गये प्रश्न के अनुसार इस प्रश्न का आशय जानना चाहिये । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम से कहते हैं कि ( जच्चेव जंबुद्दी - वस वतव्वया भणिया ) हे गौतम ! जिस प्रकार से जम्बूद्वीप के १७७ एकसो सित्तोतेंर सूत्ररूप प्रकरण में जंबूद्वीप संबंधी वक्तव्यता अर्थात् वर्णन कहा है उसी तरह यहाँ कहना चाहिये, ( सच्चेव सव्वा) वही सब वक्तव्यता (अपरिसेसिया ) पूर्णरूप से ( लवणसमुद्दस्स वि भाणियव्वा ) लवण समुद्र के विषय में भी जान लेनी चाहिये । तथा च जम्बूद्वीप के प्रकरण में कथित सूत्ररीति के अनुसार ( उदीचा
हे लहन्त ! सत्रएणुसमुद्रमां ( सूरिया ) मे सूर्यो ( उद्दीचि - पाईणमुग्गच्छ ) हीथि પ્રાચીન દિશાની વચ્ચેનાપૂર્વ અને ઉત્તર દિશાની વચ્ચેના ઇશાનકાણુમાં ઉદ્દય पामीने, आयीन ( पूर्व ) अने દક્ષિણની વચ્ચેના અગ્નિકાણુમાં શું અસ્ત પામે છે? ઇત્યાદિ જે પ્રશ્નો જ ખૂદ્વીપના પ્રકરણમાં આવ્યા છે, એ પ્રશ્નો અહી પણ ગ્રહણ કરવા જોઇએ.
उत्तर- (जच्चेव जंबूद्द वस्स वत्तन्त्रया भणिया) हे गौतम ! नेवी रीते भूद्वीपना ૧૭૭ એકસેસત્યાતર સૂત્રરૂપ પ્રકરણમાં જ મૂદ્દીપ સંબધી વર્ણન કરવામાં मा०यु छे, ( सच्चेव सन्त्रा ) मे समस्त वर्णुन (अपरिसेसिया ) पूव ३ये (लव. णसमुहस्स विभाणियव्वा) सवणुसमुद्रना विषयभां सम सेवु ने मंजू द्वीपना अम्रणुभां म्हेवामां आवे सूत्र प्रभा ४ ( उदीचि - प्राचीनम् उद्गत्य
श्री भगवती सूत्र : ४