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________________ १६६ भगवती सूत्रे " अप्रदेशा अपि ' इश्क एव भङ्गः तत्र - उत्पत्तिमरणविरहाभावात्, अत एवोक्तम् जीवै केन्द्रियव भङ्गत्रिकमिति । तथाहि ' समदेशाः १, ' सप्रदेशाश्च अमदेशश्च २ प्रदेशाच अप्रदेशावर इति भङ्गत्रयम्, सिद्धपदं त्वत्र न वक्तव्यं, तेषामनाहारकत्वात् । तथाहि - आहारकपदविशेषितौ एकत्वबहुत्वविषयकदण्डको अधस्तन प्रदर्शितरीत्या वेदितव्यौ, तत्र प्रथमम् एकस्वदण्डकाभिलापमाह - ' आहारए णं भंते ! 66 उत्पत्ति और मरण के विरह का अभाव रहता है इस कारण उसमें सप्रदेशा अपि अप्रदेशा अपि " ऐसा एक ही भंग-तीसरा ही भङ्ग घनता है। इसी कारण " जीवै केन्द्रियवजे भङ्गत्रिकम् " ऐसा सूत्रकार ने कहा है । आहारक जीवों में भङ्गत्रिक इस प्रकार से हैं - ( १ ) आहारक जीव सप्रदेश होते हैं ऐसा यह प्रथम भांग है। " सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च कितनेक पूर्वोत्पन अहारक जीव सप्रदेश होते हैं और कोई एक नया उत्पद्यमान आहारक जीव अप्रदेश होता है। यह द्वितीय भंग है । " सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च " कितनेक पूर्वोत्पन्न आहारक जीव सप्रदेश भी होते हैं और कितनेक उत्पद्यमान आहारक जीव अप्रदेश भी होते हैं, यह तृतीयभङ्ग है । " सिद्धपदंस्वत्र न वक्तव्यम् का तात्पर्य यह है कि सिद्ध जीव अनाहारक होते हैं इस कारण यहां उन्हें ग्रहण नहीं किया गया है। इस विषय में विशेषरूप से स्पष्टीकरण इस प्रकार से है - आहारक पद से विशेषित हुए दो दण्डक कि जो एक आहारक जीव ܙܕ છેડવાનું કારણ એ છે કે એકેન્દ્રિય જીવેામાં ઉત્પત્તિ અને મરણના વિરહને अभाव रहे छे, ते अरखे तेमना ( सप्रदेशा अपि अप्रदेशा अपि ) मेरे। એક જ ભંગ–શ્રી ભગ જ ખને છે. તે કારણે સૂત્રકારે એવુ કહ્યું છે કે ( जीव केन्द्रिय वजे भगत्रिकम् ) से लब पहने सने थोडेन्द्रियने छोडीने બાકીના આહારક જીવાના ત્રણ ભંગ થાય છે. તે ત્રણ ભંગ નીચે પ્રમાણે છે– (१) आहार वा सप्रदेश होय छे. (२) ( खन देशाश्च अप्रदेशश्च ) કેટલાક પૂર્વોત્પન્ન આહારક જીવા સપ્રદેશ હાય છે અને કોઈક નવે ઉત્પન્ન થયેàા આહારક જીવ અપ્રદેશ હેાય છે. (૩) सप्रदेशाश्व अप्रदेशाश्च ) उटवाउ પૂર્વોત્પન્ન આહારક જીવા સપ્રદેશ હાય છે અને કેટલાક નવા ઉત્પન્ન થતા भाडार लवो यप्रदेश होय छे. (सिद्धपदंत्यत्र न वक्तव्य ) सिद्ध मना હારક હાય છે, તે કારણે ઉપયુક્ત આહારક જીવામાં તેમના સમાવેશ થતા નથી. આ વિષયનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણુ નીચે પ્રમાણે છે— 66 श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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