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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ६ उ० ३ सू० ३ कर्मपुद्गलोपञ्चयस्वरूपम् ८५७ अपर्यवसिताः अनन्ताश्च भवन्ति । गौतमः पृच्छति-' से केणटेणं ? ' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन-केन कारणेन एवमुच्यते कतिपये सादिकाः सपर्यवसिताः यावत्कतिपये अनादिकाः अपर्यवसिताः भवन्ति ? भगवानाह- गोयमा ! नेरइयतिरिक्ख-जोणिय मणुस्स-देवा गइमागइं पडुच्च साइया सपज्जवसिया' हे गौतम ! नैरयिक - तिर्यग्रयोनिक - मनुष्य - देवाः गतिम् नरकाद्वर्तनादिकमाश्रित्य सादिकः आगतिम्-नरकादौ गमनमाश्रित्य सपर्यवसिताः सान्ता भवन्ति, 'सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवसिया' सिद्धाः जीवाः सिद्धगति प्रतीत्य आश्रित्य सादिकाः अपर्यवसिताः अनन्ताः भवन्ति । ' भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणाइया सपज्जवसिया, ' भवसिद्धिकाः भव्याः जीवाः लब्धि प्रतीत्य अनादिकाः क्या कारण है इस बात को जानने के अभिप्राय से उनसे पूछा-(से केणटेणं ) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि कितनेक जीव सादि सान्त हैं यावत् कितनेक जीव अनादि अनन्त हैं ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु ने उनसे कहा-(गोयमा ! नेरइय-तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवा गइमागई पडुच्च साइया सपज्जवसिया) हे गौतम! नारक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव ये नरक आदिगति में आने की अपेक्षा से सादि और आगति-उस २ गति से निकलने की अपेक्षा से सान्त माने गये हैं। (सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवसिया) सिद्ध जीव सिद्ध गति की अपेक्षा से सादि अनन्त माने गये हैं। (भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणाइया सपज्जवसिया) भव्यजीव लब्धि की अपेक्षा अनादि सान्त माने गये हैं-क्यों कि भवसिद्धिक जीवों की भव्यत्वलब्धि હવે જેના વિષયમાં આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન સાંભળીને તેનું કારણ જાણવાની જીજ્ઞાસાથી ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછે છે– (से केणठेणं ) 3 महन्त ! २५ ॥ ४॥२0 मे ४ो छ। ३ ८४ ०७३। સાદિ સાન્ત હોય છે, કેટલાક સાદિ અનંત હોય છે, કેટલાક અનાદિ સાન્ત હોય છે, અને કેટલાક અનાદિ અનંત હોય છે? उत्तर-( गोयमा ! नेर इयतिरिक्खजोणिय, मणुस्स देवा गइमागई पडुच्च साइया सपज्जवसिया ) 3 गौतम ! ना२४, तिययोनि, मनुष्य मने देव, ये નરક આદિ ગતિમાં આવવાની અપેક્ષાએ સાદિ છે અને નરક આદિ ગતિ. सामाथी नीजवानी अपेक्षा सान्त छ. ( सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवसिया ) सिद्ध ७वाने सिद्ध गतिनी मपेक्षा साहि सनत भानवामा मावा छे. (भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणाइया सपज्जवसिया) सिद्धि ભવ્ય જીવોને લબ્ધિની અપેક્ષાએ અનાદિ સાન્ત કહ્યા છે, કારણ કે ભવ भ० १०८ श्रीभगवतीसत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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