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________________ ८५० भगवती सूत्रे अस्ति एकेषां कतिपयानां जीवानां कर्मोपचयः सादिकः सपर्यवसितो भवति । ' अत्थेगइयाणं अणाइए सपज्जवसिए ' एकेषां कतिपयानां जीवानां तु कर्मोपचयः अनादिकः सपर्यवसितः सान्तोऽस्ति ' अत्येगइयाणं अणाइए अपज्जवसिए ' अस्ति एकेषां कविपयानां जीवानां कर्मोपचयः अनादिकः अपर्यवसितः अनन्तः, किन्तु ' णो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए साइए अपज्जवसिए 'नो 'चैव खलु-नैव कथमपि जीवानां कर्मोपचयः सादिकः अपर्यवसितः अनन्तो भवति । ' गौतमः पृच्छति - ' केणं ? ' हे भदन्त ! तत् है इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर यहां कर्मबन्धरूप पुद्गलोपचय को किसी जीव की अपेक्षा से सादि सान्त कह दिया गया है ऐसा जानना चाहिये सूत्रकार इस विषय को स्वयं आगे स्पष्ट करनेवाले हैं - अतः विशेषरूप में इस पर कुछ नहीं लिखा जाता है-इसी कारण ( अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोचचए साइए सपज्जवसिए) ऐसा कहा है । ( अत्थेगइयाणं जीवाणं अणाइए सपजबसिए) तथा कितनेक जीव ऐसे भी हैं कि जिनका कर्मबंधरूप पुद्गलोपचय अनादि होकर भी सान्त होता है। ऐसे वे जीव अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि होते हैं। ( अत्थेगइयाणं अणाइए अपज्जवसिए) कितनेक जीव ऐसे भी हैं कि जिनका कर्मबंधरूप कर्मोपचय अनादि अनन्त होता ऐसे जीव अभव्यश्रेणी के होते हैं। किन्तु ( णो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए साइए अपज्जबसिए) ऐसे जीव कोई भी नहीं हैं कि जिनका कर्मोपचय सादि होकर भी अनन्त ही बना रहे क्योंकि ऐसी मान्यता में मुक्ति के अभाव का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। अब गौतम इसी विषय को विशेषरूप से स्पष्ट समझने के लिये प्रभु કહેલ છે આ વિષયનું સૂત્રકારે પહેલાં વધારે સ્પષ્ટીકરણ કરેલું છે, તેથી અહીં तेनुं वधु पिष्टपेषणु यु नथी. मेरा ( अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साइए सपज्जवसिए) उटलाई कत्रोने साहि सान्त उद्या छे. ( अत्थेगइयाणं जीवाणं अणाईप सपज्जवसिए ) डेटा वो मेवां होय છે કે જેમના ક`ખ ધરૂપ પુદગલાપચય અનાદિ હોવા છતાં સાન્ત ( પ્રારંભ सहित ) होय छे. भेवां भवे। ( अन्तरात्माओ ) सभ्यगृहष्टि होय छे. ( अत्थेगइयाणं अणाइए अपज्जवसिए) उटलां वो सेवा होय छे नेमना ક્રમ બધ રૂપ પુદ્ગલાપચય અનાદિ અને અનંત હાય છે. એવાં જીવો અભવ્ય श्रेशिना होय छे. परंतु ( णो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए साइए अपज्जवसिए ) કોઇ પણ જીવ એવાં હાતા નથી કે જેમના કપચય સાદિ અને અનત હાય, કારણ કે આ પ્રકારની માન્યતાના સ્વીકારથી મુક્તિના અભાવને સ્વીકા श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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