SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 745
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेषचन्द्रिका टी० श. ५ उ० १९०५ देवलोकनिरूपणम् ७३१ न कुरुत । 'तएणं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जाव-चरमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिद्धा' ततस्ते पार्श्वपत्सीयाः-पार्थशिष्यशिष्याः स्थविराः भगवन्तः यावत् चरमैरुच्छ्वास-निःश्वासः सिद्धाः संजाताः 'जाव-सम्बदुक्खप्पहीणा, अत्थेगइया देवलोएसु उबवन्ना' यावत्-सर्वदुःखप्रहोणाः सर्वदुःखरहिताः अस्त्ये के अवशिष्टशुभकर्माणः अन्यतमाः केचिद् स्थविरा देवलोकेषु देवरूपेण उत्पन्नाः देवाः संजाता इत्यर्थः प्रथमयावत्करणात् संलेखनादिकं कृत्वा, इत्यादि संग्राह्यम् । द्वितीययावकरणात् 'बुद्धा मुक्ता परिनिर्वाता' इति संग्राह्यम् ॥ सू० ४ ॥ देवलोकवक्तव्यता पूर्व देवलोकेषु उत्पन्ना इत्युक्तम् अतो देवलोकं निरूपयितुमाह- काविहाणं भंते' इत्यादि। मूलम्-काविहा गं भंते ! देवलोगा पन्नत्ता ? गोयमा! चउबिहा देवलोगा पन्नत्ता, तं जहा-भवणवासी-वाणमंतरजोतिसिय-माणिय-भेयेणं । भवणवासीवाणमंतरा अट्ठविहा, उचित नहीं है। (तएणं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जाव चरमेहिं उस्तासनिस्तासे हिं सिद्धा) इसके बाद वे पापित्यीय स्थविर भगवंत यावत् अंतिम श्वासों से सिद्ध हो गये (जाव सव्वदुक्खप्पहीणा) यावत् वे समस्त दुःखों से रहित हो गये तथा कितनेक स्थविर ऐसे भी थे कि जिनका शुभकर्म अवशिष्ट था सो वे देवरूप से देवलोकों में उत्पन्न हो गये। यहां पहिले यावत् पद से (संलेखनादिक करके) इत्यादि पाठ ग्रहण किया गया है और द्वितीय यावत्पद से (बुद्धा, मुक्ता, परिनिर्वाता) ऐसा पाठ ग्रहण किया गया है। सू०४॥ नडी. (तएण ते पासाविच्चिज्जा थेरा भगवतो जाव चरमेहि उस्सासनिस्सा. सेहि सिद्धा) त्या२६ पंचमहानत३५ धमनी संयम पूर्व माराधना ४शन તે પાર્શ્વનાથ ભગવાનના કેટલાક શિષ્ય સ્થવિર ભગવતે (યાવતું) અંતિમ बासाथी सिद्धपहन पाभ्या. “जात्र सम्बदुक्खप्पहीणा " (यात्) तेथे સમસ્ત દુઃખોથી રહિત થઈ ગયા, તથા કેટલાક સ્થવિરો એવા પણ હતા કે જેમનાં શુભ કર્મ અવશિષ્ટ (બાકી) હતાં. એવા સ્થવિરે દેવલોકમાં દેવपर्याय 64-न थया. ही पडा " यावत् " ५४थी “समना माल रीन " त्याहि ५४ अY ४२॥ये। छ, भने भी “ यावत् " ५४थी “बुद्धा, मुक्ता, परिनिर्वाता " AL 48 मड राय छे. ॥ सूत्र ४॥ श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy