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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० ३०५ उ०९सू० ३ नरयिकादि - समयज्ञाननिरूपणम् ७०५ रूपेण, आवलिका इति वा-' इयम् आवलिका' इत्येवंरूपेण, ' इयम् अवसर्पिणी इति वा, इयम् उत्सर्पिणी इति वा इत्येवंरूपेण च कथं न विज्ञायते ? भगवानाह'गोयमा । इहं ते सि माणं, इहं तेसिं पमाणं इहं तेसिं एवं पण्णायए' हे गौतम ! अस्मिन् मनुष्यलोके तेषां समयादिपदार्थानाम् मान-परिमाणं भवति, समयादे रादित्यगतिसमभिव्यङ्गयतया, आदित्यगतेश्च मनुष्यलोके एव सद्भावात् , निरयादौ तु तद्भावात् मनुष्यक्षेत्रे एव समयादिज्ञानं भवति न निरयलोके पर्यायापन नारक जीव यावत् समय को, आवलिका को, अवसर्पिणीकाल को उत्सर्पिणीकाल को नहीं जान सकता है-अर्थात् " यह समय पदार्थ है" इस रूप से समय को, (यह आवलिका है ) इस रूप से आवलिका को, (यह अवसर्पिणीकाल है) इस रूप से अवसर्पिणीकाल को, "यह उत्सर्पिणीकाल है" इस रूप से उत्सर्पिणीकाल को नारक नहीं जान सकते हैं-ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि-(गोयमा) हे गौतम ! (इह तेसिं माणं इह तेसिं पमाणं, इह तेसिं एवं पण्णायए-तं जहा-समयाइ वा, जाव ओसप्पिणी इवा-से तेणटेणं जाव नो एवं पन्नायए-तं जहा-समयाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ चा) इस मनुष्यलोक में ही उन समयादि पदार्थों का मान-परिमाण होता है क्यों कि समयादिकों का ज्ञान सूर्य आदि की गति द्वारा होता है-और सूर्य की गति केवल मनुष्यलोक में ही है इससे बाहर नारकादिक में नहीं। इसलिये मनुष्यक्षेत्र में ही इन समयादिकों का ज्ञान होता है। नरकलोक में नहीं होता है। इसी तरह से લિકા, અવસર્પિણી કાળ, ઉત્સર્પિણી કાળ ઈત્યાદિને જાણી શક્તા નથી ? એટલે है । समय यहाथ छे" से रीते समयने, " 20 मासि छ” से રૂપે આવલિકાને, “આ અવસર્પિણી કાળ છે ” એ રૂપે અવસર્પિણી કાળને, આ ઉત્સર્પિણી કાળ છે” એ રૂપે ઉત્સર્પિણી કાળને નારકે જાણી શકતા નથી, એવું આપ શા કારણે કહો છો ? तेन वा सापता महावीर प्रभु ४ छ-" गोयमा!" गौतम ! ( इह तेसिं माणं, इइ तेसिं पमाणं, इह तेसिं एवं पण्णायए-त'जहा-समयाइ वा, जाव ओसप्पिणीइ वा-से तेणठेण जाव नो एवं पन्नायए-तजहा-समयाइ वा, जाव उत्सप्पिणीइ वा ) 24॥ मनुष्य सोमा ४ ते समयाहि पहायानु' मान (માપ-પરિણામ) હોય છે, કારણ કે સમયાદિકોનું જ્ઞાન સૂર્ય આદિની ગતિ દ્વારા થાય છે. સૂર્યની ગતિ ફક્ત મનુષ્ય લેકમાં જ હોય છે, તેની બહારનાં નરકાદિ ક્ષેત્રોમાં તેને અભાવ હોય છે. તે કારણે મનુષ્ય લોકમાં જ તે સમ भ८९ श्री. भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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