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________________ प्रमेश्यन्द्रिका २० ५ ० ८० २ प्रकारान्वकारस्वरूपनिरूपणम् ६९३ पुद्गलपरिणामो भवति । ' राई अमुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपमिणामे रात्री अशुभाः पुद्गलाः भवन्ति, रविकिरणसम्पर्कविरहात् अशुभः पुद्गलपरिणामो भवति । तदुपसंहरति-से तेणटेणं०' तत् तेनार्थेन दिवसे प्रकाशः, रात्रौ अन्धकारो भवति । गौतमः पुनः पृच्छति- नेरइयाणं भंते ! किं उज्जोए, अंधयारे !' हे भदन्त ! नैरयिकाणां किम् उद्योतः प्रकाशः, अथवा अन्धकारः ? भगवानाह-गोयमा ! नेग्इयाणं णो उज्जोए, अंधयारे' हे गौतम ! नैयिकाणाम् नो उद्योतो भवति, अपितु अन्धकार एव भवति । गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति ‘से केणडेणं०' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन नैरयिकाणां नो प्रकाशो भवति, अपितु सूर्य की किरणों के सम्पर्क से पुद्गल परिणाम शुभ होता है (रोई असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे ) रात्रि में अशुभ पुद्गल रहते हैं और रवि किरणों के संबद्ध के विरह से पुद्गल परिणाम भी अशुभ होता है। अब इस विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि (से तेणटेणं) हे गौतम ! इस कारण मैंने ऐसा कहा है कि दिन में प्रकाश होता है और रात्रि में अंधकार होता है यह निश्चित है। अब गौतम पुनः प्रभु से पूछते हैं (नेरइयाणं भंते ! किं उन्जोए अंधयारे ?) हेभदन्त ! नारक जीवों के यहां क्या प्रकाश रहता है ? या अंधेरा रहता है ? इसके समाधान निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! (नेरइयाणं णो उज्जोए अंधयारे) नारक जीवों के यहां प्रकाश नहीं रहता, किन्तु अंधेरा ही रहता है। (से केणटेण) नारकों के यहां प्रकाश नहीं होता, अंधेरा ही रहता है-ऐसा जो भदन्त ! आप पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे " रात्रे मशुल पुरस डाय छ, भने सूर्यना हवान महावे धुत परिणाम ५ अशुभ डाय छे. “ से तेणठेणं" હે ગૌતમ ! તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે દિવસે પ્રકાશ અને રાત્રે અંધકાર હોય છે, એ વાત નિશ્ચિત છે. गीतम स्वामी नाना विषयमा प्रश्न पूछे छ- नेरइयाण भवे! कि उज्जोए अधयारे ?) ३ महन्त ! ना२४ ७वाने त्यां प्राश २ छ, અંધકાર રહે છે ? તેનો જવાબ આપતા મહાવીર પ્રભુ કહે છે-- “गोयमा!" गौतम! (नेरइयाणं णो उज्जोए अंधयारे) ना२३ જીનાં નિવાસોમાં પ્રકાશ હોતું નથી પણ અંધકાર જ હોય છે? प्रश्न-“से केणद्वेणं ? " महन्त ! ५ ॥ २६ मे छ। નારકેનાં નિવાસસ્થાનેમાં (નરકેટમાં) પ્રકાશ હેતે નથી, અંધકાર જ હોય છે ? श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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