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________________ ૬૭ भगवतीस्प्रे - , एवमेव, सोपचयवदेव जघन्येन एकं समयम, उत्खर्षेण आवलिकायाः असंख्येयभागपर्यन्तं नैरयिकाः सापचया भवन्ति ! गौतमः पृच्छति - ' केवइयं कालं निरुवचयनिरवच्या ?' कियन्तं कालं सोपचय सापचयाः? हे भदन्त ! नैरयिकाः कियकालपर्यन्तं सोपचय - सापचया भवन्तीति ? भगवानाह - 'एवंचेव' एवमेव सोपचयव देव जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण आवलिकायाः असंख्येयभागम्, 'केवइयंकालं निरुवचय - निरवच्या ' हे भदन्त ! नैरयिकाः कियन्तं कालं निरुपचय - निर. पचयाः भवन्ति ? भगवानाह ' गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं वारस मुहुत्ता' हे गौतम! नैरयिकाः जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेन द्वादश मुहूर्तान् यावत् निरुपचय - निरपचया भवन्ति । तथा 'एगिंदिया सव्वे सोवच्या, सावचया सव्वद्धं ' एकेन्द्रियाः खलु जीवाः सर्वे सर्वाद्धाम् सर्वकालपर्यन्तं सोपचयाः नारक कितने समय तक तृतीयभंगवाले होते हैं ? तब इसके भी उत्तर में ( एवं चेव) प्रभु उनसे कहते हैं कि हे गौतम! नरक जीव युगपत् उपचय और अपचयसे युक्तरूप तृतीयभंगवाले कम से कम एक समयतक और अधिक से अधिक आवलिकाके असंख्यातवें भागतक होते हैं । ( के वइयं कालं निरुचचय - निरवचया) हे भदन्त ! नारकजीव कितने कालतक उपचrसे रहित और अपचय से रहित होते हैं उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि (गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता) हे गौतम! कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक बारह मुहूर्त तक नारक जीव उपचय से रहित और अपचय से रहित होने रूप चतुर्थ भंगवाले हैं । (एगिदिया सव्वे सोवच्या सावच्या सव्वद्ध ) तथा एकेन्द्रिय जितने भी जीव हैं वे सब काल में उपचयसहित और अप प्रश्न - ( केवइयं कालं सोवचय - सावचया ? ) हे लहन्त ! नारी हैटला કાળ સુધી ઉપચય-અપચય ખન્નેથી યુકત રહે છે ? उत्तर – “ एवं चेव " हे गौतम! ना२४ कवानो उपयय-अययय અન્નથી એકી સાથે યુકત રહેવાના કાળ પણુ ઉપચય ચુકત રહેવાના કાળ પ્રમાણે જ સમજવા. એટલે કે તેના એછામાં એછે. એક સમયને! અને વધારેમાં વધારે આવલિકાના અસ`ખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ કાળ સમજવે. ( केवइयं काल' निरुवचय - निरवचया ? " डे लहन्त ! नारडी डेंटला आज सुधी ઉપચય-અપચયથી રહિત હાય છે ? उत्तर- ( गोयमा ! जहणेण एक्क समय, उक्कोसेण बारसमुहुत्ता ) હું ગૌતમ ! નારકી એછામાં એછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે बार भुहूर्त सुधी उपन्यय-अयथयथी रहित होय छे. ( एगिंदिया सव्वे सोच श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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