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________________ भगवतीस्त्रे हीयन्ते इति बोध्यम् । ' अवट्टिया जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता' असुरकुमाराः जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण अष्टचत्वारिंशन्मुहूर्तान अपस्थिता भवन्ति । एवं दसविहा वि' एवम् असुरकुमारवदेव दशविधा अपि असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारपर्यन्ता दशापि भवनपतयो वर्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिताश्च जघन्येन एक मुहूर्तम् , उत्कर्षेण अष्टचत्वारिंशन्मुहूर्तपर्यन्तं तिष्ठन्ति । 'एगिदिया वइंति वि, हायति वि' एकेन्द्रियाः जीवा वर्धन्तेऽपि, तेषु विरहकालाभावेऽपि बहुतराणामुत्पादात् , अल्पतराणां चोद्वर्तनात् , हीयन्तेऽपि बहु तराणामुत्द्वर्तनाद् , अातराणां चोत्पादात् , ' अवटिया वि' अस्थिता यथावृद्धि और हानि का अभावकाल, ( एवं असुरकुमारा वि वडूंति, हायंति, जहा नेरइया) जिस प्रकार से नैरयिक जीव बढते हैं, घटते हैं कम होते हैं, उसी प्रकार से असुरकुमार भी-भवनपति आदि असुरकुमार भी चढते घटते रहते हैं ऐसा जानना चाहिये । ( अवट्टिया जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठचत्तालीसं मुहत्ता) ये अस्तुरकुमार कम से कम एक समयतक और अधिक से अधिक अडतालीस मुहर्ततक अवस्थित पने रहते हैं । ( एवं दसविहा वि ) इसी तरह से नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनवासी देवे बढ़ते घटते रहते हैं। इनका अवस्थानकाल एक समय का जघन्यरूप से है और ४८ मुहूर्त का उत्कृष्ट रूप से है । ( एगिदिया वड्डेति वि हायंति वि ) एकेन्द्रिय जीव बढते भी हैं और घटते भी हैं-तात्पर्य कहने का यह है एकेन्द्रिय जीवों में विरहकाल नहीं होता है तो भी अनेक जीवों का वहां उत्पाद होने से और रहते। डाय मेयो ) ( एवं असुरकुमारा वि वड्दति, हायांति, जहा नेरइया) જેવી રીતે નારક જેમાં વધારે અને ઘટાડે થાય છે, એવી જ રીતે અસુરકમારામાં ( ભવનપતિ આદિ અસુરકુમારેમાં) પણ વધારો ઘટાડો થયા કરે छ, सम सभा. ( अवट्ठिया जहण्णेणं एकं समय, उक्कोसेण अट्ठचत्तालोस मुहुत्ता) मसुरेशुभाशने। भवस्थान ४ माछामा माछ। मे समयन मन धारभ धारे ४८ भुत सुधीन डाय छ “ एवं दसविहा वि" शत નાગકુમારથી લઈને સ્વનિતકુમાર પર્યન્તના દેવેમાં વધારો ઘટાડો થયા કરે છે. તેમને અવસ્થાન કાળ ઓછામાં ઓછા એક સમયને અને વધારેમાં વધારે ૪૮ મુહૂર્તન સમજ. (एगिदियाण वदति वि हायति वि) मेन्द्रिय वानी सध्या 40 પણ છે અને ઘટે પણ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે એકેન્દ્રિય માં વિરહકાળ હતો નથી, છતાં પણ અનેક અને તે પર્યાયમાં ઉત્પાદ હોવાથી श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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