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________________ ६०० - - -- भगवतीसूत्र कालेणं, तेणं समएणं समगस्स भगवश्री महावीरस्स अंतेवासी णारयपुत्ते णाम अणगारे पगइभदए, जाव-विहरइ' तस्मिन् काले, तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी शिष्यः नारदपुत्रो नाम अनगारः, प्रकृतिभद्रका प्रकृत्या स्वभावेन भद्रः-अनुकूलत्तिः , यावत्-विहरति-तिष्ठति, यावत् करणात -प्रकृत्युपशान्तः, प्रकृति प्रतनुनोधमानमायालोमः, मृदुमादेवसम्पन्नः, आलीनः भद्रकः, विनीतः, इति संग्राह्यम् , तत्र प्रकृत्युपशान्तः - प्रकृत्यैवोपशान्ताकारः, प्रकृतिमतनुक्रोधमानमायालोमा-प्रकृत्यैत्र - स्वभावेनैव प्रतनवः-अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते तथा, सत्यपि कषायोदयेऽतिमन्दक्रोधादिसुनने के लिये जनता आई और वह धर्मोपदेश सुनकर अपने स्थान पर वापस आगई ' तेणं कालेणं तेणं समएणं' उस काल और उस समय में समस्त भगवओ महावीर स्स अंतेवासी गारयपुत्ते णामं अणगारे पगइभदए जाव विहरह' श्रमण भगवान महावीर के एक शिष्य जिनका नाम नारदपुत्र अनगार था और जो प्रकृति से भद्रअनुकूल वृत्ति वाले थे यावत-तप संयम से अपनी आत्मा को भावित कर विचरते थे। यहां यावत् शब्द से प्रकृत्युपशान्तः, प्रकृतिप्रतनु क्रोधमानमागालोमा, मृदुमार्दवसम्पन्नः, आलीनः भद्रकः विनीतः" इस पाठ का संग्रह हुआ है । इम पाठका अर्थ हम प्रकार से है-इनके शारीर का आकार स्वभाव से ही उपशान्त था, स्वभाव से ही इनमें क्रोध, मान, माया, और लोभ ये कषायें अत्यन्त मन्द थीं। तत्पर्य यह है कि कषाय का उदय होने पर भी इनमें क्रोधादिभाव उत्कट रूप से २ने। समय समय था ( तेण कालेण तेणं समएण) ते आणे भने त समये ( समणस भगवओ महावीररस अंतेवामी ण ग्यपु ते णाम अणगारे पगइ भहर जाव विहरइ ) श्रम भगवान महावीरन ना२६पुत्र मार नामना એક શિષ્ય હતા. તેઓ ભદ્રિક પ્રકૃતિવાળા (સરળ રવભાવના ) હતા નીચે દર્શાવ્યા પ્રમાણેના ગુણોથી યુક્ત એવાં તે મુનિ સંયમ અને તપથી પિતાના मामाने मालित ४२ता वियता . (जाव ) ५४थी मी ( प्रकृत्युपशान्तः, स्कृतिप्रतनुकोधमानमायालोभः, मृदुमा वसम्पन्नः, आलीन: भद्रकः विनितः ) 241 પાઠને સંગ્રહ કરાયો છે. આ પાઠને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-તેઓ સ્વભાવથી જ ઉપશાન્ત હતા, સ્વભાવથી જ તેમનામાં ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ ૩૫ કષાયે અત્યંત મંદ હતા. એટલે કે કષાયને ઉદય થવાનું નિમિત્ત મળે ત્યારે પણ તેમનામાં ક્રોધાદ્રિ ભાવોને તીવ્ર રૂપે ઉદય થતો નહીં, પણ અતિ श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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