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________________ ---- - - - - प्रमेयचन्द्रिका टी० श. ५७०७९०७ रयिकानांसारंभानारंभादि निरूपणम् ५५५ समारभन्ते पृथिवीकायसम्बन्ध्यारम्भं कुर्वन्ति यावत्-त्रसकायं समारभन्ते, आरम्भाधपत्याख्यानात् सारम्भा भवन्ति, यावत्करणात्-अप्कायं, तेजस्कायं, वायुकायम् ' इत्यादि संग्राह्यम् , ' सरीरा परिग्गहिया भवंति' तैः खलु नैरयिकैः शरीराणि परिगृहीतानि परिग्रहविषयीकृतानि भवन्ति, 'कम्मा परिग्गहिया भवन्ति ' कर्माणि परिगृहीतानि आत्मसात्कृतानि भवन्ति 'सचित्ताऽचित्तमीसियाई दवाई परिग्गहियाई भवंति' अथ च तैः नैरयिकैः सचित्तानि जीवसहितानि अचित्तानि जीवरहितानि मिश्राणि सचित्ताऽचित्तमिश्रितानि च द्रव्याणि परिगृहीतानि परिग्रहविषयीकृतानि भवन्ति, विरत्यभावात् । प्रकृतमुपसंहरति' से तेणटेणं तं चेव' तत् तेनार्थेन तदेव, पूर्वोक्तनैरयिकाणाम् सारम्भ-सपरिग्रहविषयकत्तान्तः प्रतिपादितो वेदितव्यः । नारक जीव पृथिवी कायसंबंधी आरंभ करते हैं, यावत् त्रसकाय संबंधी आरंभ करते हैं। अर्थात् उन्हों के द्वारा इन आरंभों का प्रत्याख्यानतो होता नहीं है-इस कारण वे सारंभ होते हैं। यहां यावत् शब्द से " अप्कायं, तेजस्कायं, वायुकायम् , इत्यादि का ग्रहण किया गया है। (सरीरा परिग्गहिया भवंति) उन नारकों द्वारा शरीर-वैक्रिय शरीरपरिगृहीत-परिग्रह के विषयभूत किये गये होते हैं। ( कम्मा परिग्गहि या भवंति कर्म भी उनके द्वारा आत्मसात् किये गये होते हैं (सचित्ता चित्त मीसियाई दवाइं परिग्गहिया भवंति) उन नरकों द्वारा सचित्त जीवसहित, अचित्त-जीवरहित और मिश्र-सचित्ताचित्तरूप द्रव्य परिग्रह के विषयी भूत बने रहते हैं। क्यों कि इनके पास इनका विरतिरूप त्याग तो होता नहीं है । (से तेणटेणं तं चेव ) इस कारण हे भदन्त ! આરંભ કરે છે અને ત્રસકાય પર્યન્તના જીવને આરંભ કરે છે. એટલે કે આરના પ્રત્યાખ્યાન તે કરતા નથી, તે કારણે તેઓ સારભી હેય છે. मही जाव' (पर्यन्त) पहथी "मय, ताय, पाय" वगेरेने अड ४२वामी माव्या छे. (सरीरा परिम्गहिया भवति)ते नारी द्वारा शरीर વદિય શરીર–પરિગૃહીત કરાયા હોય છે. એટલે કે તેઓ શરીરનો પરિગ્રહ ४२ डाय छे. (कम्मा परिग्गहिया भवति ) तमना भ प परिगडीत राया जाय छे. (सचित्ताचित्त मीसियाई दवाइं परिगहियाई भवति) तमा सथित्त (७१ सडितना), मथित्त, (१ तिन) भने मिश्र (सभित्ता ચિત્ત) દ્રવ્યોને પરિગ્રહ કરતા હોય છે. કારણ કે તેમનામાં તે દ્રવ્યોની विति३५ त्यात त नयी (से वेणद्वेणं तंव) गौतम! ते २ श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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