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________________ ५१० भगवती सूत्रे पुद्गलस्य सैजस्य अन्तरं कालतः क्रियच्चिरं भवति ? गौतम ! जन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् एवं यात् - असंख्येयप्रदेशावगाढः । एक प्रदेशावगाढस्य खलु भदन्त ! पुद्गलस्य निरेजस्य अन्तरं कालतः क्रियच्चिरं एक समय का होता है और अधिक से अधिक अन्नर असंख्यात काल का होता है । ( दुप्पएसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ के वचिरं होइ ) हे भदन्त । द्विप्रदेशी स्कन्ध अपनी द्विप्रदेशी स्कन्ध रूप अवस्था का परित्याग कर अन्य स्कन्ध रूप अवस्था धारण कर ले और फिर उस अवस्था का परित्याग कर फिर उसी द्विप्रदेशी स्कन्ध रूप अवस्था को धारण करे तो इसमें काल की अपेक्षा कितना अन्तर पड़ता है ? ( गोयमा ) हे गौतम ! ( जहणणेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अणतं कालं, एवं जाव अणतपएसओ ) द्विप्रदेशी स्कन्ध को अपनी वही द्विप्रदेशी पर्याय को पुनः धारण करने में अन्तर काल जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से अनन्त काल का लगता है। इसी तरह से यावत् अनन्त प्रदेशो स्कन्ध तक जानना चाहिये । ( एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स सेयरस अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ) हे भदन्त ! एक प्रदेश में अवगाढ हुए सकंप पुद्गल स्कंध को अपनी वही सकंप पर्याय को पुनः धारण करने में कालकी अपेक्षा कितना अन्तर पड़ता है ? (गोयमा ) जहणेण एवं समयं उक्कोसेण' अस खेज्जकालं ) हे गौतम! ते अंतर ( વિરહુ કાળ ) ઓછામાં એછુ. એક સમયનું અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાતકાળનું હોય છે. ( दुपए सियाल णं भते ! धस्स अंतर कालआ केवच्चिर होइ ? ) डे ભદન્ત ! જો કાઈ દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધ પેતાની દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધ રૂપ પર્યાયને છેડી દઈને ખીજા કોઈ સ્કન્ધ રૂપ પર્યાયને ધારણ કરે, અને ત્યારબાદ ફરીથી દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધ રૂપ પર્યાયને ધાણુ કરે, તે તેમાં કાળની અપેક્ષાએ કેટલું અ'તર थडे छे ? ( गोयमा ! ) हे गौतम! ( जइण्णेण एगं समयं उक्कोसेणं अनंत काले एवं जाव अणतपएसिओ) द्विप्रदेशी अन्धने पोतानी ते पूर्व पर्यायने ધારણ કરવામાં આછામાં એ એક સમય અને વધારેમાં વધારે અન’તકાળ લાગે છે. અનત પ્રદેશી પર્યન્તના સ્કન્ધાના અતરકાળ ( વિરહ કાળ ) ના विषयभां पशु खेन प्रमाणे समन्वु. ( पगपए से | गाढस्स णं भरते ! पोग्गलस्स सेयरस अतर कालओ केवच्चिर होइ ? ) डे लहन्त ! भेड अद्वेशनी अत्रणा હનાવાળા સપ પુદ્દલ સ્કન્ધને, પેાતાની એ જ સંપ પર્યાયને ફરીથી ધારણ हरता अजनी अपेक्षा ठेट म ंतर पडे छे ? ( गोयमा ! ) हे गौतम । श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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