SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टी०।०५ ७०७ सू०४ परमाणुपुद्गलादीनां पर्शनानिरूपणम् ५०५ सियं फुसमाणो सम्वेसु वि ठाणेसु फुसइ । त्रिपदेशिकः स्कन्धः त्रिपदेशिकं स्पृशन सर्वेषु अपि स्थानेषु नवभिरपि विकल्पैरित्यर्थ : स्पृशति । ' तदुपलक्षणतया उपसंहरन् आह-'जहा तिपएसिओ तिपएसियं फुमाविओ एवं तिप्पएमिओ जाव-अणंतपए मिएणं संजोएयचो' यथा त्रिपदेशिकः त्रिप्रदेशिकं स्पर्शिनः, एवं तथा त्रिपदेशिकः यावत् अनन्तपदेशिकेन संयोजयितव्यः, यावत्करणातू 'चतुष्पदेशिकेन पञ्चपदेशिके नेत्याचारभ्याऽसंख्यातप्रदेशिकेन, इत्यन्तं संग्राह्यम् । 'जहा तिपएसिओ एवं जाव अणंत एसिश्रो भाणियन्यो । यथा त्रिपदेशिकः एवं यावत् अनन्त प्रदेशिको भणितव्यः-वक्तव्यः । अत्र यावत्पदेन ' चतुष्पदेशिका अनुसार द्विप्रदेशी स्कन्ध का स्पर्श करता है । (तिपएसिओ तिपएसियं फुसमाणो सम्वेसु वि ठाणेषु फुसइ) त्रिप्रदेशिक स्कन्ध जब दूसरे त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का स्पर्श करता है तब वह समस्त विकल्पों द्वारा अर्थात् नौ ही विकल्पों द्वारा उसका स्पर्श करता है । (जहा तिपएमिओ तिपामियं फुसाविओ, एवं तिप्पएसिओ जाव अणंतपएसिएणं संजोएयव्यो ) जिस प्रकार से त्रिप्रदेशिक स्कन्ध मरे त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के साथ पर्शिन करने वाला यहां प्रकट किया गया है, इसी प्रकार से इसी पद्धति के अनुमार वह यावत् अनंत प्रदेशिक तक के समस्त स्कन्धों के साथ स्पर्शित होता है ऐसा जानना चाहिये। यहां यावत् शब्द से चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध पंचपदेशी स्कन्ध यावत् संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध इन स्कन्धों का ग्रहण किया गया है ( जहा तिपएसियो एवं जाव अणंतपएसिओ भाणियन्यो ) तात्पर्य यह है कि जैसे त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का परमाणु पुद्गल के साथ संयोग स्पर्श प्रकट “तिपएसिआ तिपएसिय फुसमाणो सब्वेसु वि ठाणेसु फुसइ ” न्यारे ત્રિપ્રદેશી સ્કન્ધ બીજા ત્રિપ્રદેશી સ્કન્યને સ્પર્શ કરે છે, ત્યારે સમસ્ત વિક दास-नवे नववि द्वारा २५० ४२ छ. “जहा तिपएसिओ तिपरसिय फुसाविओ, एवं तिप्पएसिओ जाव अणंताएसिएणं संजोएयव्यो" वी शते ત્રિપ્રદેશી કપ બીજા ત્રિપ્રદેશી સ્કન્ધને સ્પર્શ કરે છે, એજ રીતે અનંત પ્રદેશિક પર્યન્તના ક સાથે પણ સ્પર્શ કરે છે. એટલે કે ચાર પ્રદેશવાળાથી લઈને અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના ક સાથે તેને સ્પર્શ નવે નવ વિકલ્પ मनुसार थाय छे मेम सम.. “ जहा तिपए सिओ एवं जाव अण'तपएसिआ भाणियव्यो" निशी २४.धन। पुस ५२माथी मत अशी २४.५ ५५. श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy