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________________ ४६० भगवतीसूत्रे शिकस्कन्धे एको भाग एकपरमाणुरूपः द्वितीयो द्विपरमाणुरूप इति द्विपरमाणुरूपस्य द्वितीयभागस्य तथाविधपरिणामेन एकभागतया विवक्षितत्वात् द्विपदेशिकस्कन्धस्येव त्रिपदेशिकस्कन्धस्यापि त्रयो विकल्पास्त एव विवक्षिताः ३ । देशस्य-एजनं देशयोश्चानेजनमिति चतुर्थः ४ । देशयोरेजनम् देशस्य चानेजनमिति पञ्चमः ५। इति । त्रिप्रदेशिकस्य जाताः पञ्च विकल्पाः! चतुष्पदेशिके स्कन्धे तु पइविकल्पास्तत्र पञ्च तु त्रिप्रदेशिकवदेव ।। षष्ठो विकल्पस्तु चतुष्पदेशिकस्कन्धस्य चतुर्भागतया तत्र द्विपरमाणुरूपस्य प्रथमभागस्य एजनम् द्विपरमाणुरूपस्य द्वितीयभागस्य चानेजनमिति रीत्या सम्पद्यते, ततः परं सर्वेषामेव पञ्चप्रदेशिकस्कन्धादीनाम् अनन्तप्रदेशिकदूसरा भाग दो परमाणु होगा। इस लिये दो परमाणु रूप जो यह द्वितीयभाग है उसे तथाविध परिणाम वाला हो सकने के कारण एक आकाश प्रदेशावगाढ होने के कारण एकभागरूप से विवक्षित कर लिया है। अतः द्विप्रदेशी स्कंध की तरह त्रिप्रदेशी स्कंध के भी तीन विकल्प वे ही पूर्वोक्त विवक्षित हुए यहां जानना चाहिये। यहां उन तीन विकल्पों के बाद ( एक भाग से एजन होना, और दो देशों काभगों का एजन-कंपन नहीं होना ) यह चौथा विकल्प जानना चाहिये। तथा दो भागों का एजन और एक भाग का एजन-कंपन नहीं होना यह पांचवां विकल्प जानना चाहिये । इस तरह तीन प्रदेश वाले पुदल स्कंध के ये पांच विकल्प बन जाते हैं। तथा जो चार प्रदेशों वाला पुद्गल स्कन्ध है उसमें छह विकल्प होते हैं। इनमें से पांच विकल्प तो त्रिप्रदेशी स्कन्ध के जैसे अभी कहे गये हैं वैसे ही हैं। और छठा विकल्प चतुष्प्रदेशी स्कन्ध का (दो भाग का कंपन, और दो भाग का ભાગમાં બે પરમાણુ હશે. તેથી બે પરમાણુ રૂપ જે બીજો ભાગ છે તેને તે પ્રકારના પરિણામવાળે હેવાથી એક ભાગ રૂપે ગણી લેવામાં આવેલું છે. તેથી બે પ્રદેશેવાળા સ્કના જેવા જ ત્રિપદેશી સ્કલ્પના પણ ત્રણ વિકલ્પ થશે. જે ત્રણ વિકલ ઉપર બતાવવામાં આવ્યા છે. જો વિકલ્પ આ પ્રમાણે थी. “से भागनु न थ मने ये मागर्नु पन न थ." पांयमी विs६५-" मे भागनु न थ मने से भागनु पन न यु.' રીતે ત્રિપ્રદેશી પુદ્ગલ સ્કલ્પના પાંચ વિકલ્પ બને છે. ચાર પ્રદેશેવાળા પુદ્ગલ સ્કલ્પના છ વિકલ્પ બને છે. તેમાંના પાંચ વિક તે ત્રિપ્રદેશી કલ્પના પાંચ વિકપ અનુસાર જ સમજી લેવા. છઠ્ઠો વિકલ્પ આ પ્રમાણે છે-“ચાર પ્રદેશેવાળા સકન્દના બે ભાગનું કંપન થાય છે અને બે ભાગનું કંપન થતું નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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